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________________ प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन- परम्परा ने इसका क्रम बदल दिया होगा । ९६ हम “ प्रमाणसिद्धि” से ही इसके परिच्छेदों का प्रारम्भ स्वीकार करते हैं। “प्रमाणसिद्धि” परिच्छेद प्रमाणसमुच्चय के मंगलाचरणश्लोक की व्याख्या में ही समाप्त हो जाता है। द्वितीय परिच्छेद में प्रत्यक्षप्रमाण तथा तृतीय एवं चतुर्थ परिच्छेद में अनुमान प्रमाण की चर्चा है। धर्मकीर्ति परिच्छेद - विभाजन के साथ कठोरता पूर्वक नहीं चले हैं। वे प्रत्यक्ष-परिच्छेद में ही सामान्य, अनुमान, अनुपलब्धि, अन्यापोह आदि की भी यथाप्रसंग चर्चा कर लेते हैं। इसी प्रकार स्वार्थानुमान परिच्छेद में आगम, पौरुषेयत्व आदि की चर्चा हुई है। प्रमाणवार्तिक के टीकाकारों या भाष्यकारों में देवेन्द्रबुद्धि, शाक्यबुद्धि, प्रज्ञाकरगुप्त, यमारि, रविगुप्त मनोरथनन्दी, कर्णकगोमी आदि प्रमुख हैं। इनमें अधिकांश व्याख्याकारों ने स्वार्थानुमान परिच्छेद को छोड़कर तीन परिच्छेदों की व्याख्या की है। शङ्करानन्द, शाक्यबुद्धि एवं कर्णकगोमी ऐसे दार्शनिक हुए हैं जिन्होनें मात्र स्वार्थानुमान परिच्छेद की व्याख्या की है। आचार्य मनोरथनन्दी ने सम्पूर्ण चारों परिच्छेदों पर वृत्ति लिखी है । प्रमाणवार्तिक का अध्ययन भारत में इसी वृत्ति के आधार पर अधिक प्रचलित है। यह संस्कृत में भी उपलब्ध है । अन्य व्याख्याएं या भाष्य जो संस्कृत में उपलब्ध हैं, वे हैं - प्रज्ञाकरगुप्त का प्रमाणवार्तिक भाष्य, धर्मकीर्ति की स्वार्थानुमान परिच्छेद पर स्ववृत्ति एवं कर्णकगोमी की उसी परिच्छेद पर स्ववृत्ति- टीका । कर्णकगोमी की स्ववृत्ति टीका का प्रकाशन किताबमहल, प्रयाग से १९४३ ई० में हुआ । स्वार्थानुमान परिच्छेद पर धर्मकीर्ति की स्ववृत्ति का प्रकाशन हिन्दू विश्वविद्यालय नेपाल राज्य संस्कृत ग्रंथमाला के भाग २ के अन्तर्गत पं० दलसुख मालवणिया के संपादकत्व में १९५९ ई० में हुआ । अन्य व्याख्याएं तिब्बती भाषा में सुरक्षित हैं । २. न्यायबिन्दु — धर्मकीर्ति की यह रचना संक्षेपरुचि प्राज्ञ जिज्ञासुओं के लिए प्रथित हुई है। बौद्धन्याय के अनुसार प्रमाण-स्वरूप, प्रमाण- विषय, त्रिविध हेतु एवं हेत्वाभास आदि का जितना संक्षिप्त, सारगर्भित एवं स्पष्ट विवेचन इस ग्रंथ में उपलब्ध होता है, उतना अन्यत्र नहीं । सम्पूर्ण न्यायबिन्दु सूत्रों में प्रथित है, जिनकी कुल संख्या २०९ है । यह तीन परिच्छेदों में विभक्त है— (१) प्रत्यक्ष परिच्छेद (२) स्वार्थानुमान परिच्छेद और (३) परार्थानुमान परिच्छेद । इसकी विषयवस्तु का स्थूल परिचय परिच्छेद के नामों से हो जाता है। ९७ न्यायबिन्दु के रचयिता धर्मकीर्ति विज्ञानवाद के आचार्य माने जाते हैं, किन्तु न्यायबिन्दु का अध्ययन करने पर यह शुद्ध रूप में विज्ञानवाद की रचना प्रतीत नहीं होती। इस पर सौत्रान्तिक मत का अधिक प्रभाव है, क्योंकि इसमें स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण का प्रतिपादन स्पष्टतया बाह्यार्थ के रूप में किया गया प्रतीत होता है 1 २१ ९८ ९६. प्रमाणवार्तिक (स्ववृत्ति), प्रस्तावना, पृ० ९ ९७. संक्षिप्तरुचीन् प्राज्ञान् अधिकृत्येदं प्रकरणं प्रणीतम् । धर्मोत्तरप्रदीप, पृ० ३५.११ ९८. यथा (i) यस्यार्थस्य सत्रिधानासन्निधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभेदस्तत् स्वलक्षणम् । - न्यायबिन्दु, १.१३ (ii) अन्यत् सामान्यलक्षणम् । - न्यायबिन्दु १.१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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