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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
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एवं अदोषोद्भावन नामक निग्रहस्थानों की स्थापना भी की है। असाधनांगवचन से वादी का तथा अदोषोद्भावन से प्रतिवादी का निग्रह निरूपित किया गया है। वादन्याय पर प्रसिद्ध बौद्धाचार्य शान्तरक्षित ने विपश्चितार्थ नामक व्याख्या लिखी है । मूल वादन्याय का प्रकाशन महाबोधि सोसायटी, बनारस से सन् १९३३ में हुआ था, किन्तु शान्तरक्षित की व्याख्या सहित बौद्ध भारती,वाराणसी से सन् १९७२ में प्रकाशन हो गया है । आर. सी. पाण्डे के संपादन में भी इसका हाल ही प्रकाशन हुआ
७. सन्तानान्तरसिद्धि - यह विज्ञानवाद में अपने से भिन्न विज्ञान सन्तानों की सिद्धि से सम्बद्ध प्रकरण ग्रंथ है । यह मूल संस्कृत में उपलब्ध नहीं हो सका है। विनीतदेव की टीका के साथ तिब्बती भाषा में उपलब्ध है । इसका अंग्रेजी अनुवाद श्वेरबात्स्की द्वारा किया गया है।
धर्मकीर्ति के समस्त टीकाकारों को श्चरबात्स्की ने तीन वर्गों में विभक्त किया है । प्रथमवर्ग शब्दार्थपरक व्याख्या करने वाले टीकाकारों का है, जिनमें देवेन्द्रबुद्धि, शाक्यबुद्धि, विनीतदेव शान्तभद्र एवं मनोरधनन्दी प्रमुख हैं। द्वितीय वर्ग तत्त्वज्ञान एवं दार्शनिक हार्द को स्पष्ट करने वाले टीकाकारों का है, जिनमें धर्मोत्तर प्रमुख है। ये सब काश्मीरी थे । अतः श्वेरबात्स्की इस वर्ग को काश्मीरी वर्ग भी कहते हैं। इस वर्ग के अन्य दार्शनिक थे आनन्दवर्द्धन,ज्ञानश्री,शंकरानन्द आदि । तृतीय वर्ग धार्मिक टीकाकारों का था जिनमें प्रज्ञाकरगुप्त सर्वप्रथम है । यह वर्ग जिन, रविगुप्त एवं यमारि के दृष्टिभेद से पुनः तीन उपसम्प्रदायों में विभक्त किया गया है । १०१ यहां पर धर्मकीर्ति के प्रमुख टीकाकारों में धर्मोत्तर,प्रज्ञाकरगुप्त एवं अर्चट की टीकाओं पर विचार किया जायेगा। धर्मोत्तर (७००ई०)
धर्मकीर्ति के प्रमाणग्रंथों के दार्शनिक पक्ष को सर्वप्रथम व्यवस्थित एवं तार्किक शैली में धर्मोत्तर ने प्रस्तुत किया। धर्मकीर्ति अपने जीवन काल में उनके ग्रंथों का जैसा योग्य टीकाकार देखना चाहते थे,वैसा टीकाकार उनके मरणोपरान्त धर्मोत्तर के रूप में पैदा हुआ । श्वेरबात्स्की धर्मोत्तर को मूलतः काश्मीरी ब्राह्मण बतलाते हैं । धर्मोत्तर को तिब्बतियों द्वारा अत्यधिक आदर एवं सम्मान दिया गया है। वे धर्मकीर्ति के ग्रंथों का दार्शनिक विश्लेषण ही नहीं करते, अपितु नया चिन्तन एवं दृष्टिकोण भी देते हैं।
धर्मोत्तर ने धर्मकीर्ति के प्रधान ग्रंथ प्रमाणवार्तिक की टीका नहीं की। उन्होंने केवल प्रमाणविनिश्चय एवं न्यायबिन्दु ग्रंथों की विस्तृत टीका की है। प्रमाणविनिश्चय की टीका का मूल रूप संस्कृत में अनुपलब्ध है,तिब्बती अनुवाद में सुरक्षित है । न्यायबिन्दुटीका से भी यह विशाल है। संभव है उसके समान महत्त्वपूर्ण भी होगी। धर्मोत्तर के अन्य चार ग्रंथों का भी उल्लेख मिलता है,वे हैं- प्रामाण्यपरीक्षा, अपोहप्रकरण, परलोकसिद्धि एवं क्षणभंगसिद्धि।
१०१. Buddhist Logic, Vol. 1, pp. 39-47
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