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________________ १८ की मौलिक देन है । प्रमाणसमुच्चय पर अनेक टीकाएँ लिखी गयीं। स्वयं दिड्नाग ने उस पर वृत्ति की रचना की थी, किन्तु वह भी प्रमाणसमुच्चय के समान तिब्बती अनुवाद में सुरक्षित है। बुदोन के अनुसार ईश्वरसेन ने भी प्रमाणसमुच्चय पर व्याख्या लिखी थी, किन्तु वह सम्प्रति अनुपलब्ध है । ८२ प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने प्रमाणसमुच्चय पर 'प्रमाणवार्तिक' नामक वार्तिक ग्रंथ की रचना की थी जो सम्प्रति संस्कृत में उपलब्ध है एवं बौद्ध प्रमाण - शास्त्र का प्रतिनिधि ग्रंथ है। जिनेन्द्रबुद्धि ने प्रमाणसमुच्चय पर विशालामलवती नामक टीका की रचना की थी जो तिब्बती अनुवाद में ही सुरक्षित है । उसके कुछ अंश जम्बूविजय जी द्वारा संपादित वैशेषिकसूत्र में अवश्य मिलते हैं। मसाकी हतौडी एवं अयंगर की रचनाओं में भी इसके कुछ अंश उल्लिखित हैं। मसाकी हत्तौडी का कथन है कि जिनेन्द्रबुद्धि रचित प्रमाणसमुच्चयटीका पर धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक का प्रभाव है । ८३ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा आलम्बनपरीक्षा - दिड्नाग की यह रचना विशुद्ध रूप से प्रमाणशास्त्रीय नहीं है, क्योंकि इसमें आलम्बन प्रत्यय की चर्चा ही प्रमुख प्रतिपाद्य है । दिङ्नाग ने तार्किक आधार पर इसमें विज्ञानवाद को प्रतिष्ठित किया है तथा बाह्यार्थवाद का निरसन किया है। आलम्बनपरीक्षा लघुकाय रचना है, जिसका प्रकाशन संस्कृत रूपान्तर के साथ अडयार पुस्तकालय, मद्रास से सन् १९४६ ई० में हुआ । ऐयास्वामी शास्त्री ने इसमें दिङ्नाग की स्ववृत्ति, परमार्थ एवं ह्वेनसांग के चीनी अनुवाद, धर्मपाल की संस्कृत टीका एवं उसका अंग्रेजी अनुवाद भी दिया है। न्यायप्रवेश—बौद्ध न्याय की एक प्राचीन एवं संक्षिप्त रचना न्यायप्रवेश है । न्यायप्रवेश के रचयिता दिङ्नाग थे या उनके शिष्य शंकरस्वामी, यह अभी तक निश्चित नहीं हो सका है। तिब्बती शाखा के विद्वान् इसे दिङ्नाग की रचना सिद्ध करते हैं, तथा चीनी शाखा के विद्वान् इसे शंकर स्वामी की कृति के रूप में अंगीकार करते हैं। प्रथम मान्यता के समर्थक सतीशचन्द्र विद्याभूषण, पं० विधुशेखर भट्टाचार्य, एवं कीथ आदि विपश्चित् हैं, तथा द्वितीय मान्यता के समर्थक ऊई, सुगिउर, टुची, टुबियंस्की, मिरनोव आदि बुधजन हैं । ८४ दिङ्नाग के न्यायद्वार या न्यायमुख से न्यायप्रवेश एक भिन्न रचना है। टुबियंस्की एवं कीथ आदिद्वान् इसको सप्रमाण सिद्ध करते हैं। कीथ ने यह भी सिद्ध किया है कि न्यायप्रवेश का निर्माण न्यायद्वार के पश्चात् हुआ है, क्योंकि न्यायप्रवेश की शैली न्यायद्वार से विशद है तथा उसमें न्यायद्वार में गृहीत चौदह दूषणाभासों को ब्राह्मण परम्परा का समझकर छोड़ दिया गया है । ८५ न्यायप्रवेश में साधन, पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, पक्षाभास, हेत्वाभास आदि की संक्षिप्त एवं विशद चर्चा ८२. Dignāgaon perception, Introduction, p. 14 ८३. Dignagaon perception, Introduction, p. 14 ८४. The Nyaya Pravesh, Part I, Introduction, p.6 ८५. The Nyaya Pravesh, Part I, Introduction, p. 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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