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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
हपजिका, श्लोकवार्तिक आदि ग्रंथों से तुलना हेतु उद्धृत भी किया है। यत्र तत्र जिनेन्द्रबुद्धि की विशालामलवती टीका भी दी है । द्वितीय प्रयास जापानी विद्वान् मसाकी हत्तौडी ने सन् १९६८ ई० में किया ।उन्होंने दिग्नाग आन पर्सेप्शन (Dignaga, on perception) नामक अपनी पुस्तक में तिब्बती अनुवाद,संस्कृत रूपान्तर के साथ अंग्रेजी अनुवाद तथा आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत की है जिसका प्रकाशन,१९६८ ई. में हार्वर्ड विश्वविद्यालय प्रेस,केम्ब्रिज,मसाचुसेट्स से हुआ है। इनसे पूर्व राण्डले ने न्यायवार्तिक एवं उसकी टीका से दिङ्नाग के ग्रंथों के कुछ अंश फ्रेगमेण्ट्स फ्राम दिङ्नाग (Fragments from Dignaga) में संकलित किये थे जिनका प्रकाशन १९२६ ई. में रायल एशियाटिक सोसायटी,लन्दन से हुआ था । मुनि जम्बूविजय जी द्वारा संपादित एवं गायकवाड़
ओरियण्टल सीरिज में प्रकाशित चन्द्रानन्दवृत्ति युक्त वैशेषिकसूत्र में प्रमाणसमुच्चय के प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान, परार्थानुमान एवं दृष्टान्त परिच्छेदों का वैशेषिक मत की परीक्षा से सम्बद्ध तिब्बती अनुवाद प्रकाशित हुआ है । इसके अतिरिक्त प्रमाणसमुच्चय,उसकी वृत्ति एवं विशालामलवती टीका के वैशषिकमत से संबद्ध अंशों को संस्कृत में भी दिया गया है,जो दिङ्नाग के अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं । जम्बूविजयजी द्वारा ही संपादित जैन ग्रंथ द्वादशारनयचक्र में भी प्रमाणसमुच्चय के प्रथम चार परिच्छेदों का कुछ अंश संस्कृत एवं तिब्बती भाषा में प्रकाशित हुआ है,जो दिङ्नाग के अध्ययन हेतु उपादेय है ।इसके प्रथम भाग का प्रकाशन आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर गुजरात द्वारा सन् १९६६ ई० में किया गया था।उसके अनन्तर वहां से ही इसके दो अन्य भाग और प्रकाशित हो चुके
प्रमाणसमुच्चय में कुल छह परिच्छेद हैं । (१) प्रत्यक्ष (२) स्वार्थानुमान,(३) परार्थानुमान,(४) दृष्टान्त (५) अपोह एवं (६) जाति । प्रमाणसमुच्चय की सम्पूर्ण विषय वस्तु का अनुमान इसके परिच्छेदविभाजन से ही हो जाता है कि इसमें प्रमाणमीमांसा का सर्वांग विवेचन हुआ है । उपलब्ध प्रत्यक्ष-परिच्छेद में कल्पनापोढ ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया है तथा वसुबन्धु सांख्य एवं न्यायदर्शन में प्रतिपादित प्रत्यक्ष-लक्षणों का खण्डन किया गया है।
दिङ्लाग दो ही प्रमाण स्वीकार करते हैं-प्रत्यक्ष और अनुमान । क्योंकि उनके अनुसार दो ही प्रमेय हैं--स्वलक्षण और सामान्य लक्षण । प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय स्वलक्षण है एवं अनुमान प्रमाण का विषय सामान्यलक्षण । द्वादशारनयचक्र में प्राप्त स्वार्थानुमानपरिच्छेद एवं परार्थानुमान परिच्छेदों के अनुसार दिइनाग त्रिरूपलिङ्ग से अनुमेय अर्थ का ज्ञान होने को स्वार्थानुमान एवं स्वदृष्ट अर्थ के प्रकाशन को परार्थानुमान कहते हैं। अपोह द्वारा शब्द से विवक्षा का ज्ञान मानना दिइनाग
८०.अत्र प्रमाण द्विविधमेव । कुतश्चेत् । द्विलक्षणं प्रमेयं स्विसामान्यलक्षणाच्यां भित्रलक्षणं प्रमेयान्तरं नास्ति।
-प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, पृ.४ ८१. (i) तत्र स्वार्थ विरूपाल्लिङ्गतोऽर्थदक् । द्वादशारनयचक्र (ज), भोटपरिशिष्ट, पृ. १२२
(ii) परार्थमनुमानं तु स्वदृष्टार्थप्रकाशनम् । द्वादशारनयचक्र (ज), भोटपरिशिष्ट, पृ. १२५
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