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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन- परम्परा
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है। इसमें प्रत्यक्ष एवं अनुमान दो प्रमाण निर्दिष्ट हैं। न्यायप्रवेश पर जैनाचार्य हरिभद्रसूरि की टीका न्यायप्रवेशवृत्ति तथा पार्श्वदेवगण की उस पर पञ्जिका है। यही एक ऐसी बौद्धन्याय कृति है जिस पर किसी जैनाचार्य की वृत्ति अथवा टीका विद्यमान है। जैनाचार्य हरिभद्र एवं पार्श्वदेवगण ने अपनी वृत्ति व पंजिका में बौद्ध प्रमाण- सरणि को सुरक्षित रखा है ।
धर्मकीर्ति (६२०-६९० ई.)
दिङ्नाग के पश्चात् बौद्ध न्याय में सर्वाधिक कीर्ति धर्मकीर्ति को मिली है। धर्मकीर्ति भी दिङ्नाग की भांति दक्षिण भारत के ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए। नालन्दा में वसुबन्धु के वृद्ध शिष्य धर्मपाल से सर्वप्रथम दीक्षा ली तथा फिर दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन से इन्होंने दिङ्नाग-न्याय को समझा । दिङ्नाग-न्याय को समझने में ये अपने गुरु से भी आगे निकल गये तथा दिङ्नाग प्रणीत प्रमाणसमुच्चय पर वार्तिक की रचना की जो प्रमाणवार्तिक के नाम से ख्यातिप्राप्त है ।
धर्मकीर्ति के समय के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत भ्रमण (६२९ ई० से ६४५ ई० ) में जिन बौद्ध विद्वानों एवं तार्किकों का उल्लेख किया है उनमें धर्मकीर्ति का नाम नहीं है । ८६ धर्मकीर्ति का नामोल्लेख न करने के सम्बन्ध में साधारणतः यह कहा जाता है कि उस समय धर्मकीर्ति प्रारम्भिक विद्यार्थी होंगे। एतदर्थ सतीशचन्द्र विद्याभूषण आदि विद्वान् धर्मकीर्ति का समय ६३५-६५० ई० तक मानते हैं। ८७ राहुल सांकृत्यायन ६०० ई० मानते हैं । ८८ महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य इनका समय ६२० ई० से ६९० ई० निर्धारित करते हैं । ८९ इत्सिंग ने भारतयात्रा (६७१ ई० से ६९५ ई०) के विवरण में धर्मकीर्ति का भी नाम दिया है। इससे प्रतीत होता है कि धर्मकीर्ति निश्चित रूप से ६०० ई० से ७०० ई० के मध्य रहे थे। इस प्रकार महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य द्वारा निर्णीत समय (६२०-६९० ई०) उपयुक्त प्रतीत होता है ।
धर्मकीर्ति अपने न्यायमंथों में उद्योतकर, भर्तृहरि एवं कुमारिल का खण्डन करते हैं। तिब्बती परम्परा में कुमारिल एवं धर्मकीर्ति को समसामयिक कहा जाता है, किन्तु कुमारिल दिनाग का खण्डन करते हैं और धर्मकीर्ति कुमारिल का । अतः कुमारिल की रचना श्लोकवार्तिक के पश्चात् ही धर्मकीर्ति
प्रमाणवार्तिक की रचना की होगी। उद्योतकर का न्यायवार्तिक भी धर्मकीर्ति की कृति से पूर्व रच दिया गया था । धर्मकीर्ति का समय दिनाग के प्रशिष्य होने के कारण उनसे ४०-५० वर्ष बाद माना जा सकता । महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने भर्तृहरि का समय ६००-६५० ई०, कुमारिल का समय ६००-६८० ई० तथा धर्मकीर्ति का समय ६२०-६९० ई० स्वीकार किया है । ९९
८६. ह्वेनसांग ने नालन्दा के प्रसिद्ध विद्वानों की नामावली में निम्न नाम गिनाए हैं- धर्मपाल, चन्द्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, ज्ञानमित्र, शीघ्रबुद्ध और शीलभद्र । - अकलङ्कयन्यत्रय प्रस्तावना, पृ० २१
८७. A History of Indian Logic, p. 10 ८८. दर्शन-दिग्दर्शन, पृ० ७४४
८९. अकलङ्कग्रन्थत्रय, प्रस्तावना, पृ० २१-२३ ९०. अकलङ्कग्रन्थत्रय, प्रस्तावना, पृ० २२ ९१. अकलङ्कयन्थत्रय, प्रस्तावना, पृ० २१
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