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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा तर्कशास्त्र - कुछ चीनी विद्वानों एवं सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने तर्कशास्त्र को भी वसुबन्धु की रचना ठहराया है। तर्कशास्त्र का परमार्थ (५३० ई) ने चीनी अनुवाद किया था, जिसका पुनः संस्कृत उद्धार जी० टुची ने अपने ग्रंथ प्री दिड्नाग बुद्धिस्ट टेक्स्ट आन लाजिक फ्राम चाइनीज सार्सेस (Pre Dinnāga Buddhist texts on Logic from Chinese sources) में किया है । परमार्थ ने तर्कशास्त्र पर एक टीका भी लिखी थी, किन्तु वह लुप्त हो चुकी है। १२ तर्कशास्त्र में तीन प्रकरण हैं। प्रथम प्रकरण अन्याय्य वचन पर है, द्वितीय प्रकरण जाति पर तथा तृतीय प्रकरण निग्रहस्थान पर है । जाति विवेचन के सम्बन्ध में वादविधि एवं तर्कशास्त्र में काफी साम्य है। बौद्ध सम्मत रूप्य हेतु का सर्वप्रथम उल्लेख तर्कशास्त्र में मिलता है। इसमें पक्षधर्म, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षव्यावृत्ति रूप त्रिलक्षण हेतु का स्पष्ट निर्देश है । ६° इससे यह भी फलित होता है कि हेतु के त्रैरूप्य की कल्पना दिनाग से प्राचीन है। तर्कशास्त्र में हेतु का विशद वर्णन है । प्रतिवादी के प्रश्नों को उठाकर हेतु का यथार्थ स्वरूप निरूपित किया गया है। प्रारम्भ में हेतु के दो भेद किये गये हैंउत्पत्तिहेतु एवं व्यंजन हेतु ।' ६१ ६३ जिस प्रकार गौतम प्रणीत न्यायसूत्र में २२ प्रकार के निग्रहस्थानों का वर्णन है उसी प्रकार तर्कशास्त्र में उन्हीं २२ प्रकार के निग्रहस्थानों का निरूपण हुआ है। ६२ दोनों के नामों में कोई अन्तर नहीं है । तर्कशास्त्र में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि किसी को निग्रहस्थान प्राप्त हो जाय तो उसके साथ वाद नहीं करना चाहिए । खण्डन में तीन प्रकार के दोष बतलाए गए हैं- विपरीतखण्डन, असत्खण्डन,एवं विरुद्धखण्डन । ये तर्क अथवा वाद की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । ६४ यदि खण्डन इन तीन दोषों से युक्त होता है तो निग्रहस्थान माना जाता है। हेतु के समान त्रिविध हेत्वाभासों का भी निरूपण है। हेत्वाभासों के नाम है- असिद्ध, अनैकातिक एवं विरुद्ध । इस प्रकार तर्कशास्त्र में ६५ वादविद्या के साथ-साथ प्रमाणविद्या का भी अच्छा निरूपण है। दिङ्नाग एवं उनका सम्प्रदाय (५ वीं शती से ११ वीं शती) I परमार्थतः बौद्ध प्रमाणवाद का व्यवस्थापन दिनाग से आरम्भ होता है । दिड्नाग का भारतीय प्रमाणशास्त्र के विकास में महान् योगदान है; क्योंकि दिङ्नाग के अनन्तर ही न्याय, मीमांसा, जैन आदि दर्शनों में प्रमाणमीमांसा के सम्बन्ध में गहरा ऊहापोह हुआ । देखा जाय तो विशुद्ध रूप से प्रमाणशास्त्र पर दिड्नाग के पूर्व कोई ग्रंथ नहीं रचा गया। गौतम प्रणीत न्यायसूत्र में भी प्रमाणचर्चा ६०. अस्माभिस्त्रिलक्षणो हेतुः स्थापितः । तद्यथा पक्षधर्म्म: सपक्षसत्त्वं विपक्षव्यावृत्तिश्च । - तर्कशास्त्र, पृ. १३ ६१. द्विविधो हेतु: । उत्पत्तिहेतु: व्यञ्जनहेतुश्च: । तर्कशास्त्र, पृ. १८ ६२. तुलनीय, तर्कशास्त्र, पृ० ३३ ६३. यदि कस्यचिन्निग्रहस्थानापत्तिर्भवेत्, न पुनस्तेन सह वादः कर्तव्य : :- तर्कशास्त्र, पृ० ३३ ६४. खण्डनस्य त्रिविधदोषापत्तिः विपरीतखण्डनमसत्खण्डनं विरुद्धखण्डनश्चेति । यदि खण्डनमेतत्रिविधदोषोपेतं तदा निग्रहस्थानम् । - तर्कशास्त्र, पृ० १२ ६५. असिद्धोऽनैकान्तिको विरुद्धचेति हेत्वाभासाः । - तर्कशास्त्र, पृ० ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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