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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा के साथ प्रमेय चर्चा का अंश अधिक था। दिइनाग ने प्रमाणसमुच्चय नामक विशुद्ध प्रमाणशास्त्रीय ग्रंथ की रचना कर अन्य दार्शनिकों के लिए चुनौतीपूर्ण कार्य किया। __सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने सम्पूर्ण भारतीय न्यायशास्त्र को तीन भागों में बांटा है- प्राचीन न्याय, मध्यकालीन न्याय एवं आधुनिक न्याय । प्राचीन-न्याय का आधारवे गौतम प्रणीत न्यायसूत्र को बनाते हैं, नव्य-न्याय का आधार गंगेश की तत्त्वचिन्तामणि को स्वीकार करते हैं तो मध्यकालीन न्याय की सम्पूर्ण बागडोर बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग एवं जैन नैयायिक सिद्धसेन को सौंपते हैं । ६६ ।
बौद्ध दर्शन का भारतीय प्रमाणशास्त्र के विकास में जो योगदान रहा है उसका श्रेय दिइनाग एवं उनकी सम्प्रदाय को जाता है । भगवान् बुद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म हीनयान एवं महायान शाखाओं में विभक्त हो गया था। हीनयान शाखा के समर्थक वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक सम्प्रदाय थे तथा महायान शाखा के समर्थक योगाचार एवं माध्यमिक सम्प्रदाय थे। वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के आचार्य प्रमाणमीमांसीय शास्त्रों के निर्माण की ओर उन्मुख नहीं हुए । उनका प्रमुख ध्येय तत्त्वमीमांसीय शास्त्र एवं उनकी व्याख्याओं की ओर रहा। महायान शाखा ने प्रमाणमीमांसा में कुशलतापूर्वक भाग लिया। माध्यमिक सम्प्रदाय ने प्रमाण का उत्पाटन किया तो योगाचार सम्प्रदाय ने प्रमाण को स्थिरता प्रदान की। माध्यमिक सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य नागार्जुन ने गौतम प्रणीत न्याय अथवा प्रमाण का अनौचित्य प्रतिपादित कर उस पर ऐसा प्रहार किया कि नागार्जुन के पश्चात् लम्बे समय तक बौद्ध दर्शन में प्रमाण पर विचार ही नहीं हुआ।कालान्तर में योगाचार सम्प्रदाय के वसुबन्धु एवं दिइनाग ने फिर बौद्ध दर्शन में प्रमाणविद्या की स्थापना की । धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर आदि ने उसे पल्लवित किया,किन्तु माध्यमिक सम्प्रदाय में शान्तरक्षित एवं कमलशील के अतिरिक्त किसी भी आचार्य ने प्रमाणमीमांसा में सक्रिय रूप से भाग नहीं लिया।
दिङ्नाग सम्प्रदाय में दिइनाग के अतिरिक्त धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर,अर्चट,प्रज्ञाकरगुप्त शान्तरक्षित, कमलशील, दुर्वेकमिश्र, ज्ञानश्रीमित्र, रत्नकीर्ति, मोक्षाकरगुप्त आदि प्रमुख हैं। श्वेरबात्स्की ने बौद्ध-न्याय में दिङ्नाग एवं धर्मकीर्ति के द्वारा प्रतिपादित न्याय एवं प्रमाणमीमांसा का ही समावेश किया है । ६७
श्चेरबात्सकी शान्तरक्षित एवं कमलशील को मूलतः माध्यमिक सम्प्रदाय का आचार्य मानते हैं, तथा दिङ्नाग न्याय को आगे बढाने के कारण इनको माध्यमिक योगाचार अथवा माध्यमिक सौत्रान्तिक सम्प्रदाय में रखते हैं। ६८ । ___यह स्पष्ट है कि बौद्धन्याय अथवा प्रमाणमीमांसा का सर्वाधिक विकास महायान शाखा के योगाचार सम्प्रदाय में हुआ । एकमात्र विज्ञान को ही सत् मानने के कारण इस सम्प्रदायको विज्ञानवाद
६६. A History of Indian Logic,pp. 23 & 158 ६७. Buddhist Logic, Vol. I, p.1 ६८. Buddhist Logic, Vol, I, p.45
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