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________________ ३८० बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा को उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए ही संभवत :जैन दार्शनिक बाह्य अर्थ एवं आलोक को ज्ञान के प्रकट होने में कारण नहीं मानते हैं । इन्द्रिय एवं मन को उन्होंने बाह्य अर्थो का ज्ञान करने में कारण अवश्य माना है ,क्योंकि ज्ञान के पांच भेदों में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान ये दोनों इन्द्रिय एवं मन की सहायता से ही हो सकते हैं। यहां चिन्तनीय विषय यह है कि जब मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान जिनका जिनभद्र एवं अकलङ्कने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में समावेश किया है,इन्द्रिय एवं मन के बिना नहीं होते हैं,तब इन्द्रिय आदि की बाह्य अर्थों को जानने के अतिरिक्त क्या उपयोगिता है ? ऐसा तो है नहीं कि इन्द्रियादि के द्वारा आत्मा बाह्य अर्थ के अभाव में भी उसका ज्ञान कर ले। यदि बाह्य अर्थ के अभाव में भी इन्द्रियादि के द्वारा ज्ञान कर लिया जाता है तो वह ज्ञान मिथ्या समझा जायेगा, उस ज्ञान को जैन दार्शनिक वस्तुवादी होकर प्रमाणकोटि में नहीं रख सकते । इसका अर्थ है कि इन्द्रियादि के द्वारा जिसका प्रत्यक्ष ज्ञान किया जाता है वह प्रमेय या विषय भी विद्यमान होना चाहिए। विषय के अभाव में होने वाले ज्ञान को अकलङ्कआदि जैन दार्शनिकों ने केशोण्डुकज्ञान की भांति अप्रमाण ठहराया है। यह सत्य है कि हमें इन्द्रियादि के माध्यम से बाह्य अर्थ का ज्ञान होता है, किन्तु यह भी सत्य है कि बाह्य अर्थ, ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकते,क्योंकि बाह्य अर्थ की सत्ता ज्ञाता से भिन्न है । बाह्य अर्थ तो क्या,बैन दार्शनिक इन्द्रियार्थ -सन्निकर्ष को भी ज्ञान को उत्पन्न करने वाला नहीं मानते हैं। ज्ञान ज्ञाता को होता है, वह जब देखना चाहे देखे,सुनना चाहे सुने । देखना न चाहने पर घट द्रष्टा के ज्ञान को उत्पन्न नहीं करता । शब्द श्रोता के ज्ञान को उत्पन्न नहीं करता। ये तो जड़ पदार्थ हैं ,किन्तु एक चेतन प्राणी भी अन्य चेतनप्राणी में ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता । तब फिर समस्या होती है कि बाह्य अर्थका ज्ञान किस प्रकार होता है । इसके लिए जैनागम एवं दर्शनग्रंथों में विशद विवेचन मिलता है। इन्द्रियां दो प्रकार की कही गयी हैं-द्रव्येन्द्रिय एवं भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय के भी दो भेद हैं-निवृत्ति एवं उपकरण । भावेन्द्रिय भी दो प्रकार की है- लब्धि एवं उपयोग । जब तक भावेन्द्रिय में उपयोग रूप इन्द्रिय कार्य नहीं करती तब तक इन्द्रियों के द्वारा भी बाह्य अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता । बाह्य अर्थ के ज्ञान की प्रक्रिया यह है कि चक्षु इन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियाँ अर्थ को प्राप्त करके या अर्थ का सन्निकर्ष करके ही अर्थ का ज्ञान करती हैं,जबकि चक्षु इन्द्रिय अर्थ से दूर रहकर भी अर्थ का ज्ञान कर सकती है । न तो चक्षु इन्द्रिय अर्थ तक पहुंचती है और न ही अर्थ चक्षुइन्द्रिय तक पहुंचता है। चक्षु इन्द्रिय में ऐसी योग्यता है कि वह पुरोवर्ती अर्थ का प्रत्यक्ष करा सकती है। जैन दार्शनिकों ने अपने मन्तव्य की पुष्टि में अधिक नहीं कहा, अब वैज्ञानिकों द्वारा यह सिद्ध कर दिया गया है कि चक्षु इन्द्रिय में अर्थ का प्रतिबिम्ब बनता है ,उस प्रतिबिम्ब के बनने की सूचना मस्तिष्क केन्द्र में पहुंचती है तब हमें उस बाह्य अर्थ का ज्ञान होता है । यहां यह स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि अर्थका प्रतिबिम्ब ज्ञान में नहीं चक्षु में विद्यमान लेन्स में बनता है जबकि बौद्ध मान्यता के अनुसार वह प्रतिबिम्ब ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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