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प्रमेय, प्रमाणफल और प्रमाणाभास
प्रमाण से पृथक् प्रतिपादित करने के लिए प्रमाण को साकार कहा गया है। १४५
समीक्षण
जैन दार्शनिकों ने ज्ञान में अर्थकारणता एवं अर्थाकारता का पर्याप्त निरसन किया है, तथा बौद्ध दार्शनिकों ने इनका सबल स्थापन किया है। प्रश्न यह होता है कि क्या जैन दार्शनिकों ने उसी आशय को समझ कर इनका निरसन किया है, जिस आशय से बौद्ध दार्शनिकों ने इनका स्थापन किया है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहना होगा कि जैन दार्शनिकों ने बौद्धों द्वारा प्रतिपादित अर्थकारणता का आशय तो वही ग्रहण किया है जो बौद्ध दार्शनिक प्रतिपादित करते हैं, किन्तु अर्थाकारता का बौद्ध दर्शन में संभवत: मूलरूप में वह स्वरूप नहीं है जो जैन दार्शनिकों ने समझा है । बौद्ध दार्शनिकों ने अर्थकारणता (तदुत्पत्ति) एवं अर्थाकारता (तदाकारता) का प्रतिपादन ज्ञान की अविसंवादिता, प्रतिकर्मव्यवस्था एवं व्यवस्थाप्य- व्यवस्थापकभाव की दृष्टि से किया है । किन्तु जैन दार्शनिक इसे ज्ञान की स्वयोग्यता से ही उपपन्न कर लेते हैं, इसलिए वे तदुत्पत्ति, एवं तदाकारता का सैद्धान्तिक दृष्टि से खण्डन करते
हैं ।
बौद्ध दार्शनिक कहते हैं कि हमें प्रमेय का जो अधिगम होता है वह ज्ञान में रही हुई प्रमेयाकारता के कारण होता है, तथा ज्ञान में प्रमेयाकारता प्रमेय से उत्पन्न होने के कारण होती है । इसलिए तदध्यवसाय के लिए तदुत्पत्ति एवं तदाकारता को स्वीकार करना आवश्यक है ।
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जैन दार्शनिकों का प्रमाणशास्त्रीय चिन्तन, प्रायः आगमापेक्ष रहा है। वे आगमों में स्थापित सिद्धान्तों के आधार पर ही प्रमाणशास्त्रीय परिकल्पनाओं का स्थापन या संयोजन करते हैं। जैनागमों मे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय नामक आठ कर्मों का प्रतिपादन है। इनमें से ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम (कमी) से ज्ञान का प्रकट होना बतलाया गया है। ज्यों ज्यों ज्ञानावरण कर्म में क्षयोपशम होता है त्यों त्यों ज्ञान उसी प्रकार प्रकट होता जाता है, जिस प्रकार बादलों से ढके सूर्य का बादलों के हटने पर प्रकाशन हो जाता है। एक स्थिति ऐसी भी होती है जब ज्ञानावरण कर्म का सम्पूर्ण क्षय हो जाता है तथा जिसके होते ही केवलज्ञान प्रकट हो जाता है अथवा सर्वज्ञता आ जाती है। यह बात विचारणीय है कि आगमों में केवलज्ञान या सर्वज्ञता का प्रतिपादन बाह्य वस्तुओं का ज्ञान होने के आशय से किया गया है अथवा आत्मज्ञता या तत्त्वज्ञता के प्रकट होने के आशय से । सिद्धसेन, समन्तभद्र एवं तदुत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने उस ज्ञान का सम्बन्ध बाह्य अर्थों की जानकारी से जोड़कर प्रस्तुत किया है। तदनुसार सर्वज्ञ को तीनों लोकों एवं तीनों कालों की समस्त वस्तुओं एवं उनकी पर्यायों को साक्षात् जानने वाला प्रतिपादित किया है। इस सिद्धान्त के आधार पर ज्ञान के प्रकट होने का कारण ज्ञानावरण कर्म में रहे आवरण का हटना मात्र सिद्ध होता है, तब बाह्य अर्थों से ज्ञान की उत्पति का कोई सम्बन्ध नहीं रह पाता है। बाह्य अर्थ तो अपने स्थान पर विद्यमान रहते हैं, वे न तो ज्ञान पर आये आवरण को हटाने में समर्थ हैं और न ही ज्ञान १४५. न्यायविनिश्चय, भाग-१, पृ० ६६
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