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________________ प्रमेय, प्रमाणफल और प्रमाणाभास I में बनता है । दूसरी बात यह है कि विज्ञान में भी प्रतिबिम्ब बनने का कार्य चक्षु इन्द्रिय में ही होता है, अन्य इन्द्रियों में नहीं । यहां पर यह भी तर्क दिया जा सकता है कि बौद्ध दार्शनिक चक्षु एवं श्रोत्र को अर्थ का अप्राप्यकारी मानते हैं । इन दोनों इन्द्रियों को अर्थ का अप्राप्यकारी मानकर यह कैसे कहा जा सकता है कि ज्ञान अर्थ से उत्पन्न हुआ है, अथवा ज्ञान अर्थाकार है ? ज्ञान या इन्द्रियां भी जब अर्थ तक नहीं पहुंचती एवं अर्थ भी इन्द्रियों तक नहीं पहुंचता तब वह ज्ञान अर्थ का आकार कैसे ग्रहण कर सकता है ? ३८१ यहां पर यह समाधान प्रतीत होता है कि ज्ञान में अर्थ का आकार ग्रहण करने का प्रतिपादन बौद्ध दार्शनिक वस्तुभूत रूप में नहीं, अपितु व्यावहारिक रूप में प्रमिति एवं प्रमाण का व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक भाव बतलाने के लिए करते हैं । बौद्धों के अनुसार प्रमेय का अधिगम सव्यापार प्रतीत होता है। वह व्यापार ज्ञान में अर्थसारूप्य अथवा विषयाभास है। दो प्रकार के आभास वाले ज्ञान उत्पन्न होते हैं - स्वाभास एवं विषयाभास । स्वाभास ज्ञान स्वप्रकाशकता का द्योतक है तथा विषयाभास ज्ञान विषय के सारूप्य का द्योतक है। ज्ञान में विषयाभास न हो तो विषय का अधिगम शक्य नहीं है और विषयाभास की उत्पत्ति में विषय या अर्थ कारण होता है। वस्तुतः यहां बौद्ध दार्शनिक एक ज्ञान में होने वाले प्रमाण एवं प्रमेयाधिगम रूप फल में किञ्चित् भेद का व्यवस्थापन कर रहे हैं। दूसरी बात यह भी है कि बौद्ध दार्शनिक प्रमाण को अविसंवादी मानते हैं, उसका अविसंवादित्व यही है कि हमने जिस अर्थ को प्रमेय बनाया है उसी का अधिगम किया गया है। यह अविसंवादित्व अर्थसारूप्य से भलीभांति घटित हो जाता है । 'अर्थसारूप्य' का तात्पर्य यह नहीं हो सकता कि अर्थ ज्ञान में उसी आकार का प्रतिबिम्बित होता है । यदि अर्थ ज्ञान में उसी आकार का प्रतिबिम्बित होता है तो उस ज्ञान को स्थूल, मूर्त एवं दीर्घकाय दर्पण की भांति मानना होगा, जो सर्वथा अशक्य है, एवं लोक-विरुद्ध है । अर्थसारूप्य को झुंठलाने के साथ यह भी विचार करना आवश्यक है कि हमें बिना प्रतिबिम्ब के अर्थ का रंग, आकार आदि के रूप में ज्ञान कैसे होता है ? समस्या त्वक् रसना, घ्राण एवं श्रोत्र के सम्बन्ध में कम है, किन्तु चक्षु के सम्बन्ध में अधिक है, क्योंकि रंग, आकार आदि का ज्ञान चक्षु इन्द्रिय द्वारा अथवा स्मृतिज्ञान से संभव होता है । शब्द, गंध, रस एवं स्पर्श से रंग का बोध नहीं होता । आकार का बोध त्वक् से अवश्य हो सकता है। किन्तु वह उतना स्पष्ट नहीं हो पाता जितना चक्षु इन्द्रिय के माध्यम से होता है। अर्थ के प्रतिबिम्ब या सारूप्य को ग्रहण करने की जो समस्या उठी है वह संभवतः चक्षु इन्द्रिय के द्वारा किये जाने वाले प्रत्यक्ष से अधिक सम्बद्ध है और चक्षु इन्द्रिय द्वारा प्रकाश की उपस्थिति में ही अर्थ का प्रतिबिम्ब ग्रहण किया जाता है, उस प्रतिबिम्ब के द्वारा मस्तिष्क अर्थ को उस रंग, आकार आदि से युक्त जानता है । ज्ञान में विविधता है। ज्ञान का एक प्रकार ऐसा है जिसमें पूर्वदृष्ट या अनुभूत वस्तुओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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