________________
प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
की सत्ता मान्य नहीं है । वे तो शून्य में ही सत्य का दर्शन करते हैं । इसलिए उन्होंने कहा है- “यदि मनुष्य शून्य में विश्वास करता है तो वह प्रत्येक वस्तु में विश्वास करता है और यदि मनुष्य शून्य में विश्वास नहीं करता तो वह किसी भी वस्तु में विश्वास नहीं करता।"४२
वैदल्यसूत्र प्रकरण को भी नागार्जुन की रचना माना गया है। इसका अपर नाम प्रमाणविहेठन अथवा प्रमाणविध्वंसन है । यह ग्रंथ भी विग्रहव्यावर्तनी की भांति प्रमाण का खण्डन करता है । इसका तिब्बती अनुवाद मिलता है । संस्कृत में यह अनुपलब्ध है। उपायहृदय-चीनी स्रोतों से उपलब्ध उपायहृदय या उपायकौशलहृदय ग्रंथ ४३ को कुछ विद्वान् नागार्जुन की रचना मानते हैं, किन्तु उपायहृदय का अंतरंग अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि यह नागार्जुन की रचना नहीं हो सकती,क्योंकि नागार्जुन प्रमाण विरोधी थे जबकि उपायहदय में प्रमाणों का बिना खण्डन किए विस्तृत निरूपण है। ___ प्राचीन प्रमाणशास्त्रीय विद्या में उपायहृदय का स्थान महत्त्वपूर्ण है । जी. टुची के अनुसार इसके दो बार चीनी भाषा में अनुवाद हुए हैं। पहला अनुवाद बुद्धभद्र ने किया था जो अनुपलब्ध है तथा दूसरा अनुवाद किकियाये ने किया है जो अभी उपलब्ध है । इस ग्रन्थ का जापानी भाषा में अनुवाद उई ने किया है । उन्होंने इसका संपादन एवं विवेचन करते हुए चरकसंहिता से इसकी तुलना की है। ___ उपायहदय के प्रथम प्रकरण में गौतमीय न्याय के चार प्रमाणों का ही उल्लेख किया गया है ४४ तथा उनमें प्रत्यक्ष प्रमाण को इसलिए श्रेष्ठ प्रतिपादित किया गया है ,क्योंकि अन्य तीन प्रमाण प्रत्यक्ष के आश्रित रहते हैं। ४५ प्रत्यक्ष में किस प्रकार भ्रम हो सकता है इसे उपायह्रदय में सोदाहरण समझाया है। अनुमान के पूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट तीन भेद किये गये हैं ४६ तथा उनका विस्तृत निरूपण है।
उपायहृदय में इन आठ हेत्वाभासों का निरूपण है-वाक्छल, सामान्यछल, संशयसम, कालातीत, प्रकरणसम, वर्ण्यसम, सव्यभिचार एवं विरुद्ध । प्रथम प्रकरण के प्रारम्भ में वाद का ४२. प्रभवति च शून्यतेयं यस्य प्रभवन्ति तस्य सर्वार्थाः ।
प्रभवति न तस्य किचित्र प्रभवति शून्यता यस्य ||- विग्रहव्यावर्तनी,७० ४३.G. Tucci ने अपनी पुस्तक Pre-Dinnaga Buddhist texts on Logic from Chinese sources,में
चीनी स्रोतों से बौद्ध न्याय के चार प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध कराये हैं-उपायहृदय, तर्कशास्त्र, शतशास्त्र एवं विग्रहव्यावर्तन इनमें प्रारंभिक दो संस्कृत में अनूदित है तथा अन्य दो का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध कराया गया है । इनमें उपायहृदय एवं विग्रहव्यावर्तनी को नागार्जुन की, तर्कशास्त्र को वसुबन्धु की तथा शतशास्त्र को नागार्जुन एवं आर्यदेव की रचना
माना गया है। ४४. अथ कतिविधं प्रमाणम् ? चतुर्विधं प्रमाणम् । प्रत्यक्षमनुमानमुपमानमागमश्चेति ।- उपायहृदय, पृ. १३ ४५. चतुर्यु प्रमाणेषु प्रत्यक्ष श्रेष्ठम् । कुतः पुनः प्रत्यक्ष श्रेष्ठमिति चेदपरेषां त्रयाणां प्रमाणानां प्रत्यक्षोपजीवकत्वाच्छेष्ठम् ।
-उपायहदय, पृ०१३ ४६. अनुमान त्रिविधं पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टं च ।- उपायहृदय, पृ० १३ ४७. उपायहृदय, पृ. १४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org