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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
नागार्जुन
न केवल बौद्ध दर्शन में अपितु सम्पूर्ण भारतीय दर्शन में नागार्जुन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे माध्यमिक सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य थे । नागार्जुन ने सत्, असत् उभय एवं अनुभय इन चार कोटियों से बहिर्भूत शून्य तत्त्व का निरूपण किया । नागार्जुन के लिए न बाह्य प्रमेय अर्थ सत् है और न प्रमाण सत् है । वे प्रमाण का खण्डन कर प्रमेय का भी खण्डन कर देते हैं तथा शून्य तत्त्व को सिद्ध करते हैं। प्रमाणवाद के सन्दर्भ में उनकी शून्यता का अर्थ है- वह प्रज्ञा जो किसी सत्य को आत्यन्तिक रूप से सत्य नहीं मानती । ३
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नागार्जुन (११३-२१३ ई०) ३८ की प्रमुख रचनाएं हैं- (१) मूलमाध्यमिककारिका (२) युक्ति षष्टिका कारिका (३) विग्रहव्यावर्तनी । (४) वैदल्यसूत्रप्रकरण आदि । मूलमाध्यमिककारिका माध्यमिक संप्रदाय का प्रथम ग्रंथ है। इसमें आर्य नागार्जुन ने न्याय के पारिभाषिक शब्दों का यदा कदा प्रयोग किया है यथा- चौथे अध्याय में 'साध्यसम' शब्द का प्रयोग हुआ है । ३९ युक्तिषष्टिका 'युक्तियों अथवा तर्क के सम्बन्ध में साठ कारिकाओं की रचना की है। न्याय - शास्त्र के सन्दर्भ में नागार्जुन की जो कृति प्रसिद्ध हुई, वह है विग्रहव्यावर्तनी । विग्रहव्यावर्तनी की विषयवस्तु को प्रमाण - शास्त्र के सन्दर्भ में जानना उपादेय है
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विग्रहव्यावर्तनी - यह ग्रंथ प्रमाणवादियों के तर्कों का उपस्थापन कर उनका आमूल खण्डन करता है । नागार्जुन ने संभवतः गौतमीय न्यायसूत्र में प्रणीत प्रमाणचर्चा को ही अपने खण्डन का लक्ष्य बनाया है, क्योंकि वे ग्रन्थ के प्रारम्भिक श्लोकों में न्यायसम्मत चार प्रमाणों (प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द एवं उपमान) का उपस्थापन करते हैं तथा फिर प्रमाण को जड़ से उत्पाटित करने का प्रयास करते हैं।
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नागार्जुन का तर्क है कि इन चार प्रमाणों से यदि धर्म या अर्थ का अस्तित्व सिद्ध होता है तो इन प्रमाणों को किस प्रमाण से सिद्ध किया जायेगा ? यदि ये अन्य प्रमाण से सिद्ध हैं तो अनवस्था दोष आता है, क्योंकि फिर उस प्रमाण के लिए भी अन्य प्रमाण की कल्पना करनी होगी, और यदि ये प्रमाण अग्नि की भांति स्वतः प्रकाशक हैं तो अग्नि स्वतः प्रकाशक नहीं होती, उसका अपने को प्रकाशित करने का स्वभाव अंधकार में भी होना चाहिए। यदि प्रमेय की सिद्धि बिना प्रमाणों के हो जाती है तो उनको सिद्ध करने हेतु प्रमाण का उपयोग निरर्थक है । इस प्रकार नागार्जुन को प्रमाण
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३७. "Epistemlogically emptiness is Prajna, an unattached insight that no truth is absolute ly true." -Nagarjuna's Twelve Gate Treatise, p. 14,
३८. डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने नागार्जुन का समय ३०० ई० माना है — History of the Mediaeval School of Indian Logic, pp. 68-69
३९. विग्रहे यः परीहारं कृते शून्यतया वदेत् सर्वं तस्यापरिहृतं समं साध्येन जायते ॥
४०. द्रष्टव्य, विग्रहव्यावर्तनी, श्लोक ३० से ५१ ।
४१. यदि च प्रमेयसिद्धिनपेिक्ष्यैव भवति प्रमाणानि ।
किं ते प्रमाणसिद्ध्या तानि यदर्थं प्रसिद्धं तत् ॥ - विग्रहव्यावर्तनी, ४४
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