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________________ प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन - परम्परा त्रिपिटकों में कहीं कहीं तक्की अथवा तक्किक एवं विमंसी शब्दों का प्रयोग अवश्य हुआ है, ३३ जो तत्कालीन तार्किक लोगों के परिचायक प्रतीत होते हैं। विद्याभूषण इन्हें सोफिस्ट (वितण्डावादी) मानते हैं४ अभिधम्मपिटक के कथावत्थुष्पकरण (२५५ ई० पू० ) में पटिण्णा (प्रतिज्ञा), उपनय एवं निग्गह (निग्रह) शब्दों का प्रयोग हुआ है ३५ जो स्पष्टतः न्याय की पारिभाषिक शब्दावली में मिलते हैं। पालिभाषा में नागसेन रचित मिलिन्दपण्ह नामक ग्रंथ कुछ अंशों में वाद विद्या के प्रयोगात्मक रूप को प्रस्तुत करता है, क्योंकि इसमें मिलिन्द राजा का नागसेन से वाद-प्रतिवाद होता है । दलसुख मालवणिया ने धर्मोत्तरप्रदीप की प्रस्तावना में यह प्रतिपादित किया है कि पालित्रिपिटक ऐसे अनेक सुत्त हैं जिनमें भगवान् बुद्ध ने अपने विरोधियों के मन्तव्यों का विविध युक्तियों से निरास कर अपने मन्तव्य की स्थापना की है । उन्होंने अपनी युक्तियों का आधार व्याप्ति को नहीं, किन्तु दृष्टान्त को बनाया है । दृष्टान्त का तत्कालीन वादप्रक्रिया में विशेष महत्त्व था । जात्युत्तरों में भी साधर्म्य एवं वैधर्म्य दृष्टान्तों का प्राचीन काल में प्रयोग होता रहा है। ३६ 1 त्रिपिटकों के आधार पर वसुबन्धु ने अभिधर्मकोश (७.२-४) में ज्ञान के दश प्रकार निरूपित किए हैं, यथा- धर्मज्ञान, अन्वयज्ञान, संवृतिज्ञान, दुःखज्ञान, समुदयज्ञान, निरोधज्ञान, मार्गज्ञान, परचित्तज्ञान, क्षयज्ञान और अनुत्पादज्ञान । इन ज्ञानों का प्रमाणमीमांसा के साथ आचार्यों ने कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया है, किन्तु आगे चलकर प्रत्यक्ष एवं अनुमान के रूप में जो दो प्रमाण माने गए हैं, उनमें इन ज्ञानों का समावेश संभव है । ७ संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि त्रिपिटकों के रचनाकाल तक वाद विद्या का यत्किञ्चित् प्रयोग अवश्य था, किन्तु प्रमाण का व्यवस्थित या शास्त्रीय स्वरूप उभरा नहीं था । त्रिपिटकोत्तरवर्ती प्रमाणमीमांसा त्रिपिटकों के उत्तरवर्ती काल द्वितीयशती ई० से पंचम शती ई० में नागार्जुन, असङ्ग, वसुबन्धु आदि प्रमुख दार्शनिक हुए, जिन्होंने त्रिपिटक साहित्य के आधार पर मौलिक चिन्तन किया एवं भारतीय दर्शन को नयी दृष्टि प्रदान की। प्रमाण-चिन्तन के संदर्भ में भी इनका अत्यधिक महत्त्व है, इसलिए इनका एतद् विषयक परिचय दिया जा रहा है । ३३. (१) ब्रह्मजालसुत्त (दीघनिकाय) १-३२ यथा- इधा भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति विमंसी । (२) उदानम् - ६.१० - याव सम्मा सम्बुद्धा लोके नुप्पज्जन्ति न तक्किका सुज्झन्ति न चापि सावका, दुदिट्ठी न दुक्खा पमुच्चरेति । उद्धृत, History of the Mediaeval School of Indian Logic, p.60 ३४. History of the Mediaeval school of Indian Logic, p. 59 ३५. कथावत्थुप्पकरण- अट्ठकथा, पालिटेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, पृ० १३ ३६. (१) धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ० ३७-३८ (२) विशेष अध्ययन के लिए द्रष्टव्य, Jayatilleke, Early Buddhist Theory of Knowledge, George Allen and Unwin, London, 1963 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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