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________________ ३६० बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा को देखते हैं ,अपितु सर्वत्र सामान्य-स्वलक्षणात्मक अथवा सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को देखते हैं। वर्ण,संस्थान आदि से युक्त जात्यन्वित-विशेष का ही हमें ज्ञान होता है।३८ अन्य का व्यवच्छेद करना अथवा अन्य से सदृशता या अभेद बतलाना सामान्य है एवं अन्य से व्यावृत्त होना स्वलक्षण है,इन दोनों को यथार्थ मानने पर ही सारी लोक-व्यवस्था चल सकती है। 'काक मयूर की भांति नाचता है। यह कथन तभी किया जा सकता है जब काक एवं मयूर में नृत्यक्रियाका सादृश्य एवं व्यक्ति-व्यावृत्तता के कारण वैसादृश्य ज्ञात हो ।३९ सौत्रान्तिकों के स्वलक्षण रूप बाह्यार्थ तथा विज्ञानवादियों के विज्ञान रूप आन्तरिक अर्थ का एक साथ खण्डन करते हुए अकलङ्क कहते हैं कि हमें अपने ज्ञान में द्रव्यपर्यायात्मक अर्थ का प्रतिभास होता है इसलिए तात्त्विक रूप से बाह्य एवं अन्तः प्रमेय द्रव्यपर्यायात्मक है।° स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण बाह्य एवं अन्तः रूप में एक-दूसरे से भिन्न रूप में प्रतीति के विषय नहीं बनते हैं । बौद्ध दर्शन में भी स्वलक्षण को दृश्य माना गया है ,किन्तु प्राप्ति सामान्यलक्षण की मानी गई है । इसी प्रकार अनुमान का ग्राह्य विषय सामान्यलक्षण तथा प्राप्य विषय स्वलक्षण स्वीकारा गया है । वस्तुतः हमें भेदाभेदात्मक रूप में ही किसी अर्थ का ज्ञान हो पाता है । 'द्रव्य' शब्द अभेद का द्योतक है क्योंकि यह विभिन्न पर्यायों में अन्वित होता है तथा पर्याय' शब्द भेद या विशेष का द्योतक होता है ,क्योंकि पर्याय सर्वतो व्यावृत्त होता है।४१ बौद्ध दार्शनिकों ने उसी ज्ञान को अविसंवादक माना है जो अर्थक्रियासामर्थ्य से युक्त स्वलक्षण अर्थ की प्राप्ति करा सके, अथवा उसको प्रदर्शित करे,किन्तु अकलङ्कका कथन है कि स्वलक्षण रूप क्षणिक अर्थ में अर्थक्रिया नहीं हो सकती। इसलिए स्वलक्षण को प्रमेय मानना उचित नहीं है। वे बौद्धों की भांति एकान्त नित्य अर्थ में भी अर्थक्रिया होने का खण्डन करते हैं तथा एकान्त क्षणिक अर्थ में भी। जिस प्रकार अर्थ को नित्य मानने पर उसमें नक्रम से अर्थक्रिया संभव हैं और न युगपद,क्योंकि क्रम से अर्थक्रिया करने पर उसकी नित्यता भंग हो जाती है तथा युगपद् अर्थक्रिया करने पर अगले क्षण वह अकिञ्चित्कर हो जाता है ; उसी प्रकार अर्थ को क्षणिक मानने पर उसमें क्रम से अर्थक्रिया संभव नहीं है क्योंकि वह एक क्षण ठहरने के कारण अर्थक्रिया का न कारण बन सकता है और न कार्य । युगपद् भी उसमें अर्थक्रिया संभव नहीं है,क्योंकि क्षणिक अर्थ में अनेक वस्तुओं को उत्पन्न ३८. न पश्याम : क्वचित् किञ्चित् सामान्यं वा स्वलक्षणम् । जात्यन्तरं तु पश्याम : ततोऽनेकान्तहेतवः ॥- सिद्धिविनिश्चय, २.१२ ३९. अन्वयोऽन्यव्यवच्छेदो व्यतिरेक : स्वलक्षणम् ।। तत: सर्वा व्यवस्थेति नृत्येत्काको मयूरवत् ।।-न्यायविनिश्चय, १२३ ४०. तद्रव्यपर्यायात्माथों बहिरन्तश्च तत्त्वत: । लघीयस्वय, ७ अकलवयंवत्रय, पृ. ३ ४१. भेदाभेदैकान्तयोरनुपलब्धे :अर्थस्य सिद्धिरनेकान्तात् । नान्तर्बहिर्वा स्वलक्षणं सामान्यलक्षणं वा परस्परानात्मकं प्रमेयं यथा मन्यते परे:, द्रव्यपर्यायात्मनोऽर्थस्य बुद्धौ प्रतिभासनात् ।- लघीयस्त्रयवृत्ति, ७, अकलयथत्रय, पृ. ३-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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