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प्रमेय ,प्रमाणफल और प्रमाणाभास
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करने के नाना स्वभाव नहीं हो सकते ।४२
विद्यानन्द कहते हैं कि प्रमाण का विषय द्रव्यपर्यायात्मक ही हो सकता है ,अन्य नहीं । प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण या मात्र पर्याय को मानना उचित नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष से स्वलक्षण की प्राप्ति नहीं होती है। इसी प्रकार अनुमान का विषय भी सामान्यलक्षण या द्रव्यमात्र को मानना उचित नहीं है,क्योंकि वह अनुमान आदि से प्राप्त नहीं होता है।४३ यहां विद्यानन्द, धर्मोत्तर के द्वारा प्रस्तुत ग्राह्य एवं अध्यवसेय (प्राप्य) विषय की ओर ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं । धर्मोत्तर ने प्रतिपादित किया है कि प्रत्यक्ष का ग्राह्य विषय स्वलक्षण तथा प्राप्यविषय सामान्यलक्षण होता है एवं अनुमान का ग्राह्य विषय सामान्यलक्षण तथा प्राप्यविषय स्वलक्षण होता है। धर्मोत्तर के इस मन्तव्य का खण्डन करते हुए विद्यानन्द ने कहा है कि स्वलक्षण एवं सामान्य लक्षण को प्रमाण का विषय मानना उपयुक्त नहीं है । प्रमाण का विषय तो सामान्यविशेषात्मक ही हो सकता है,क्योंकि प्रमाण से सामान्यविशेषात्मक एवं द्रव्यपर्यायात्मक जात्यन्तर विषय की ही उपलब्धि होती है । वही प्रवृत्ति एवं प्राप्ति का विषय बनता है, अन्यथा अर्थक्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती। सामान्यलक्षण को बौद्ध दार्शनिक अर्थक्रिया में जिस प्रकार समर्थ नहीं मानते उसी प्रकार स्वलक्षण भी क्रम से एवं युगपद् अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं होता है। स्वलक्षण अर्थ में क्रम से एवं युगपद् रूप से अर्थक्रिया इसलिए संभव नहीं है ,क्योंकि स्वलक्षण में परिणमन का अभाव है,वह प्रतिक्षण निरंश रूप से नष्ट होकर नया उत्पन्न होता है । क्रम एवं युगपद् रूप से अर्थक्रिया परिणमनशील अर्थ में ही हो सकती है। सर्वथा अपरिणामी क्षणिक एवं नित्य पदार्थों में क्रम से एवं युगपद् रूप से अर्थक्रिया संभव नहीं है ,क्योंकि नित्य पदार्थ में जिस प्रकार क्रम एवं युगपद् रूप से अर्थक्रिया मानने में विरोध आता है उसी प्रकार क्षणिक अर्थ में भी विरोध आता है । सामान्यविशेषात्मक अर्थ परिणमनशील है,नित्यानित्यात्मक है । द्रव्य रूप से नित्य एवं पर्यायरूप से वह अनित्यात्मक होता है ।इसलिए उसमें अर्थक्रिया संभव है।४ ___ आचार्य माणिक्यनन्दी ने स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण के प्रमाण विषयत्व का सीधा खण्डन नहीं करके यह प्रतिपादित किया है कि सामान्यविशेषात्मक अर्थ ही प्रमाण का विषय हो सकता है। सामान्यविशेषात्मक अर्थ को प्रमाण का विषय मानने के पीछे माणिक्यनन्दी ने दो हेतु दिये हैं-(१) सामान्यविशेषात्मक अर्थ में ही अनुवृत्ति एवं व्यावृत्तिपरक ज्ञान हो सकता है । (२)सामान्यविशेषात्मक ४२. अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः ।
क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ॥-लघीयस्त्रय,८ ४३. द्रव्यपर्यायात्मक: प्रमाणविषयः प्रमाणविषयत्वान्यथानुपपतेः। न हि प्रत्यक्षत : स्वलक्षणं पर्यायमानं सन्मावमिवो
पलभामहे । नाप्यनुमानादे : सामान्यं द्रव्यमा विशेषमात्रमिव प्रतिपद्येमहि,सामान्यविशेषात्मनो द्रव्यपर्यायात्मकस्य
जात्यन्तरस्योपलब्धः, प्रवर्तमानस्य च तत्प्राप्ते:, अन्यथाऽर्थक्रियानुपपत्ते: ।-प्रमाणपरीक्षा, पृ.६५ ४४. न हि स्वलक्षणमर्थक्रियासमर्थ, क्रमयोगपद्यविरोधात, सामान्यवत् । न तत्र क्रमयोगपद्ये सम्भवत; परिणामाभावात् ।
क्रमाक्रमयो : परिणामेन व्याप्तत्वात, सर्वथाऽप्यपरिणामिन : क्षणिकस्य नित्यस्य वा तद्विरोधसिद्धेः ।-प्रमाणपरीक्षा, पृ.६५-६६
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