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प्रमेय ,प्रमाणफल और प्रमाणाभास
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दिवाकर ने जहां गुण एवं पर्याय में अभेद स्थापित किया है३३ वहां भट्ट अकल एवं उनके अनुवर्ती दार्शनिकों ने उनमें भेद प्रतिपादित किया है। यहां पर यह समझना अधिक उपयुक्त होगा कि द्रव्य में जो सदैव उपस्थित रहते हैं अथवा द्रव्य के जो सहभावी हैं वे गुण कहे गये हैं, यथा आत्मा में रहा हुआ ज्ञान उसका गुण है,क्योंकि वह आत्मा के साथ सदैव रहता है ।३५ द्रव्य में क्रमभावी परिणाम को पर्याय कहा गया है,जो प्रतिक्षण उत्पन्न होती है एवं नष्ट होती है । यथा आत्मा में रहे हुए सुख, दुःख आदि ।३६ उत्पाद एवं व्यय पर्याय का होता है गुण एवं द्रव्य का नहीं। गुण एवं द्रव्य मूलतः धूव हैं, किन्तु पर्याय की परिणति से वे भी परिवर्तित दिखाई देते हैं। गुणों के कारण एक द्रव्य का अन्य द्रव्यों से भेद दिखाई देता है तथा पर्याय के कारण एक ही द्रव्य में विभिन्न कालों में भेद दिखाई देता है । इस प्रकार गुण एवं पर्याय दोनों से व्यावृत्ति का बोध होता है, इसलिए ये विशेष कहे गये
हैं।
इसीलिए अकलङ्ककहते हैं कि द्रव्यपर्यायात्मक एवं उत्पादव्ययधौव्य से युक्त सत् ही वास्तविक प्रमेय होता है,क्योंकि उसके विषय में प्रमाण एवं प्रमाणाभास की व्यवस्था होती है। बौद्ध सम्मत प्रमेय का खण्डन एवं सामान्यविशेषात्मक प्रमेय की सिद्धि
अकलङ्क, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र आदि जैनदार्शनिकों ने प्रमाण-विषय पर गहन चिन्तन कर बौद्ध प्रमाण-विषयों को अनुपपन्न ठहराया है तथा सामान्यविशेषात्मक अथवा द्रव्यपर्यायात्मक अर्थ को प्रमाण का विषय सिद्ध किया है । जैन दार्शनिक अकलङ्क, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी एवं वादिदेवसूरि के प्रमुख तर्क यहां दिये जा रहे हैं।
अकलङ्क कहते हैं कि बौद्धों को अभीष्ट प्रत्यक्ष-प्रमाण का विषय स्वलक्षण कथञ्चित् असाधारण होने पर भी सदृश रूप में ही प्रतिभासित होता है,असदृश अथवा असाधारण रूप में नहीं । हमें इन्द्रिय ज्ञान में वस्तु का सावयव एवं स्थूल एक आकार ज्ञात होता है जिसका पूर्व एवं अपर ज्ञान में स्पष्ट रूपेण बिना स्खलना के अन्वय होता है । स्वलक्षण अर्थ चक्षगोचर नहीं हो पाता.हम स्वलक्षणों के सामान्य रूप का ही चक्षु द्वारा ग्रहण कर पाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय स्वलक्षण विशेष नहीं, अपितु सामान्य-विशेषात्मक अर्थ है, जिसमें हम वस्तु के सदृश एवं असदृश धर्मों का ज्ञान करते हैं। इसमें सामान्य व्यापक है तथा विशेष व्याप्य है।३७
अकलङ्कका कथन है कि हम कहीं पर भी मात्र सामान्य को नहीं देखते हैं और न मात्र स्वलक्षण ३३. सन्मतितर्कप्रकरण, ३.९-१४ ३४. गुणपर्याययो क्यमिति सूत्रे द्वयग्रहः ।-न्यायविनिश्चय, ११३, अकलङ्कअन्यत्रय, पृ. ४५ ३५. गुणः सहभावी धों, यथा - आत्मनि विज्ञानव्यक्तिशक्त्यादय: ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ५.७ ३६. पर्यायस्तु क्रममावी, यथा तत्रैव सुखदुःखादि ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ५.८ ३७. अभिमतस्वलक्षणानां कथञ्चिदसाधारणत्वेऽपि सदृशात्मनेव प्रतिमासनात् । अक्षबुद्धो स्वावयवस्वभावं
स्थवीयांसमेकमाकारं प्रतिभासमानं पूर्वापरान्वयि परिस्फुटमस्खलद्वृत्ति संपश्याम: । अन्यथा परिस्फुटनं नावभासेत । -सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, पृ.१२३
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