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________________ ३५८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा जो सादृश्य है उसे जैन दर्शन में तिर्यक् सामान्य तथा भिन्न-भिन्न पर्यायों को विशेष मानकर जैन दार्शनिकों ने प्रमाण का एक ही विषय सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ कहा है। सामान्य-विशेषात्मक प्रमेय का स्वरूप जैन दर्शन में उस सामान्यविशेषात्मक प्रमेय का क्या स्वरूप है, इस पर संक्षिप्त विचार किया जा रहा है । जैन दर्शन में सामान्य एवं विशेष नामक पदार्थों के पृथक् अस्तित्व की मान्यता नहीं है । जैनदार्शनिक प्रत्येक वस्तु में अनन्त अथवा अनेक धर्मों की सहावस्थिति को स्वीकार करते हैं । उन समस्त धर्मों को वे सादृश्य एवं वैसादृश्य के आधार पर सामान्य एवं विशेष नाम देते हैं । वस्तु के जो धर्म अन्य वस्तुओं से अथवा उसी वस्तु की पूर्व एवं उत्तर पर्यायों से सादृश्य ज्ञापित करते हैं वे सामान्य तथा जो धर्म अन्य वस्तुओं से अथवा उस वस्तु की अन्य पर्यायों से विसदृशता ज्ञापित करते हैं वे विशेष कहे गये हैं। भट्ट अकलङ्क ने स्पष्ट कहा है-'समानभावः सामान्य विशेषोऽन्यव्यपेक्षया' ।२७ वस्तु के अनेक धर्मों में रही हुई सदृशता या अनुगतस्वभाव सामान्य है तथा व्यावृत्तस्वभाव विशेष है। विशेष एवं सामान्य का पृथक् अस्तित्व नहीं है ,अपितु ये एक ही वस्तु या अर्थ में रहे हुए समान एवं असमान धर्म हैं,जिनका हमें उस वस्तु में ज्ञान होता है। जैनदार्शनिकों ने सामान्य को दो प्रकार का प्रतिपादित किया है-१. तिर्यक् सामान्य एवं २. ऊर्ध्वतासामान्य।२८ अनेक व्यक्तियों में रही हुई समान परिणति को तिर्यक् सामान्य कहा गया है , यथा शबल,शाबलेय,बाहुलेय आदि अनेक पिण्डों में 'गाय' (गोत्व) नामक सामान्य । एक ही व्यक्ति ,या वस्तु के पूर्वापर परिणामों में रहा हुआ सदृश द्रव्य ऊर्ध्वता सामान्य कहा गया है,यथा कटक, कंगन, आदि में रहा हुआ 'स्वर्ण' । ३° इस प्रकार कोई भी वस्तु सामान्य से रहित नहीं हो सकती,क्योंकि वह अपनी पूर्वापर पर्यायों के सादृश्य से नहीं बच सकती। गुण एवं पर्याय के भेद से विशेष भी दो प्रकार का कहा गया है।३१ गुण एवं पर्याय के कारण ही द्रव्य, अन्य द्रव्यों एवं अपनी पर्यायों से व्यावृत्ति का बोध कराता है। द्रव्य का लक्षण है-'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्।३२ जो गुण एवं पर्यायों से युक्त होता है उसे जैन दर्शन में द्रव्य कहा गया है । गुण एवं पर्यायों में भेद है या नहीं ,यह जैन दार्शनिकों के मध्य विवाद का विषय रहा है । सिद्धसेन २७. न्यायविनिश्चय, ११२, अकलङ्कग्रंथत्रय, पृ. ४५ २८. सामान्यं देधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ।- परीक्षामुख, ४.३ २९. प्रतिव्यक्ति तुल्या परिणतिस्तिर्यक्सामान्यम्, शबलशाबलेयादिपिण्डेषु गोत्वं यथा ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ५.४ ३०. पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूर्ध्वतासामान्यं, कटककंकणाद्यनुगामिकांचनवत् ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ५.५ ३१.(१) विशेषोऽपि द्विरूपो - गुणः पर्यायश्च ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ५.६ । (२) माणिक्यनन्दी ने गण के स्थान पर व्यतिरेक शब्द का प्रयोग किया है, यथा विशेषश्च पर्यायव्यतिरेकभेदात् ।- परीक्षामुख, ४.६-७ ३२.(१) तत्त्वार्थसूत्र, ५.३७ (२) गुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु. उपओ अस्सिया भवे ॥-उत्तराध्ययनसूत्र, २८.६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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