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________________ प्रमेय, प्रमाणफल और प्रमाणाभास जैन दर्शन में प्रमेय जैन दर्शन में समस्त प्रमाणों का विषय सामान्यविशेषात्मक अथवा द्रव्यपर्यायात्मक अर्थ है । २४ बौद्धों की भांति जैन दार्शनिकों ने अलग-अलग प्रमाणों के लिए अलग-अलग प्रमेय की व्यवस्था नहीं की। वे तो सर्वसम्मति से प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान एवं आगम इन सभी प्रमाणों का विषय सामान्यविशेषात्मक अर्थ को ही मानते हैं। जैन दार्शनिक कहते हैं कि हमें किसी भी प्रमेय का बोध सामान्य-विशेषात्मक रूप में ही होता है, केवल सामान्य अथवा केवल विशेष के रूप में नहीं । इसलिए प्रमेय अर्थ सामान्य विशेषात्मक होता है । २६ प्रमेय अर्थ के लिए जैन दर्शन में सामान्य विशेषात्मक शब्द के अतिरिक्त द्रव्य-पर्यायात्मक, भेदाभेदात्मक, सदृशासदृशात्मक, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, नित्यानित्यात्मक, आदि विभिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ है । २५ कुछ शब्द तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से दिये गये हैं तथा कुछ ज्ञानमीमांसीय दृष्टि से । तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से जैन दर्शन में अर्थ अथवा सत् का लक्षण है 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् ।' अर्थात् जो उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से युक्त होता है वह 'सत्' अथवा 'अर्थ' कहा जाता है । 'सत्' ही प्रमेय बनता है । इसलिए प्रमेय के लिए उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, नित्यानित्यात्मक, द्रव्य-पर्यायात्मक आदि शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। ज्ञानमीमांसीय दृष्टि से प्रमेय सदृशासदृशात्मक, भेदाभेदात्मक, सामान्यविशेषात्मक अथवा द्रव्यपर्यायात्मक प्रतीत होता है। प्रमीयमाण अर्थ अन्य पदार्थों से अथवा अपनी ही पूर्वापर पर्यायों से सदृश अथवा असदृश रूप में ज्ञात होता है। यदि वह अन्य पदार्थों से अथवा अपनी पूर्वापर पर्यायों से सदृश एवं विसदृश रूप में ज्ञात न हो तो हम किसी भी प्रमेय का भलीभांति सम्यक् ज्ञान नहीं कर सकते। जैसे हमारा प्रमेय 'घट' है । 'घट' का ज्ञान अन्य घंट पदार्थों अन्वित होने के कारण सामान्यात्मक तथा उस विशिष्ट (व्यक्ति) घट का ज्ञान विशेषात्मक होता है, फलतः 'घट' का ज्ञान सामान्यविशेषात्मक होता है। यदि 'घट' का सामान्य रूप में ही ज्ञान हो तो कभी विशेष 'घट' का ग्रहण नहीं किया जा सकेगा तथा विशेष 'घट' का ही ज्ञान हो तो उसे अन्य सदृश घों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकेगा। विशेष रूप में अन्य अर्थों से भिन्न अथवा सामान्य रूप में अन्य अर्थों से अभिन्न रूप में प्रमेय की प्रमिति होने के कारण उसे भेदाभेदात्मक भी कहा गया है । जब एक ही पदार्थ का विभिन्न अवस्थाओं में ज्ञान किया जाता है तो वह प्रमेय द्रव्यपर्यायात्मक रूप में ही ज्ञात होता है, यथा-किसी पुरुष का शैशव, यौवन एवं वार्धक्य में होने वाला ज्ञान । पुरुष द्रव्यरूप में एक तथा शैशवादि पर्यायों में भिन्न ज्ञात होता है। पर्यायों की भिन्नता होते हुए भी एक ही द्रव्य में २४. (१) सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषय: ।-परीक्षामुख, ४.१ (२) तद् द्रव्यपर्यायात्मार्थो बहिरन्तश्च ।- लघीयस्त्रय, ७, अकलङ्कग्रंथत्रय, पू. ३ (३) तस्य विषय : सामान्यविशेषाद्यनेकान्तात्मकं वस्तु । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ५.१ (४) प्रमाणस्य विषयो द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु । प्रमाणमीमांसा, १.१.३० २५. द्रष्टव्य, अकलङ्कयं धत्रय, पू. ३, १०, ११,७१, ८० आदि । २६. तत्त्वार्थसूत्र, ५.२९ ३५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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