SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा आदि काल में भेद,स्त्री-पुरुष-नपुंसक लिङ्ग में भेद तथा एकवचन, द्विवचन, बहुवचन आदि में भेद करना दुष्कर हो जायेगा । लिङ्ग शब्द के वाच्य एवं लिङ्ग के वाच्य में कोई अन्तर नहीं रहेगा,क्योंकि दोनों अपोहमात्र के वाचक हैं । २९२ यदि बौद्धमत में अपोह भी अनेक प्रकार का होता है, अतः विशेषण-विशेष्यादि में भेद करना शक्य है तो अपोह के भेद किस आधार पर होते हैं ? १.अपोह्य के भेद से? २. वासनाभेद से? ३. विभिन्न सामग्री से उत्पन्न होने के कारण? ४.विभिन्न कार्यों को करने के कारण ५.आश्रय-भेद से अथवा ६.स्वरूप भेद से? २९३ अपोह्य के भेद से अपोह में भेद बतलाना उचित नहीं है,क्योंकि 'सर्व' 'प्रमेय' आदि शब्दों में अपोह्य भेद नहीं होने के कारण अपोह भेद नहीं हो सकता। सर्व से भिन्न असर्व' और प्रमेय से भिन्न 'अप्रमेय' नहीं है जिनके अपोह से 'सर्व' 'प्रमेय' आदि को सिद्ध किया जा सके । इसी प्रकार सत्त्व, कृतकत्व आदि हेतु भी सिद्ध नहीं हो सकते,क्योंकि असत् एवं अकृतक का जगत् में अस्तित्व नहीं है,जिनके अपोह से सत्त्व,कृतकत्व आदि को सिद्ध किया जा सके। अपोह्यभेद से अपोह भेद बतलाने में अन्योन्याश्रय दोष भी आता है,क्योंकि अपोह्यभेद के सिद्ध होने पर अपोह में भेद सिद्ध हो तथा अपोह में भेद सिद्ध होने पर अपोह्य भेद सिद्ध हो । इसलिए अपोह्यभेद के आधार पर अपोह में भेद नहीं किया जा सकता। वासनाभेद के आधार पर भी अपोह में भेद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वासना-भेद अनुभव-भेद के आधार पर होता है एवं अपोह के एक रूप होने के कारण अनुभव में भेद नहीं बताया जा सकता। भिन्न-भिन्न सामग्री से उत्पन्न होने के कारण भी अपोह में भेद नहीं हो सकता.क्योंकि अपोह कल्पित है अतः उसकी सामग्रीविशेष से उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि उसे सामग्रीविशेष से उत्पन्न माना जाता है तो अपोह काल्पनिक नहीं है। अपोह को विभिन्न कार्य करने वाला भी नहीं कहा जा सकता,क्योंकि वह खपुष्प के समान असत होने के कारण विभिन्न कार्यों को करने में असमर्थ है। यदि अपोह विभिन्न कार्यों के करने में समर्थ है तो उसे परमार्थ सत् मानना होगा। इसी प्रकार आश्रय भेद और स्वरूपभेद से भी अपोह के भेदों का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता ,क्योंकि जो अवस्तुरूप है उसका न कोई आश्रय भेद हो सकता है और न कोई स्वरूप भेद । स्वरूपभेद होने पर तो अपोह को स्वलक्षण की भांति परमार्थसत् मानना होगा। बौद्धमत में शब्दों के द्वारा स्वरूप से भिन्न पर्युदास एवं प्रसज्यरूप अपोह का कथन किया जाता २९२. न्यायकुमुदचन्द्र,प.५६१-५६२ २९३. न्यायकुमुदचन्द्र.प.५६२-६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy