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________________ स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह - विचार प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं हो सकती । शब्द का अर्थ 'अन्यापोह' स्वीकार करने पर इतरेतराश्रय दोष भी आता है। २८६ क्योंकि इसमें अगो का व्यवच्छेद करने पर ही 'गौ' की प्रतिपत्ति हो सकती है तथा 'अगो' का ज्ञान 'गौ' का निषेधात्मक रूप है, अतः 'गौ' का ज्ञान हुए बिना उसका निषेध नहीं किया जा सकता । २८७ दूसरे शब्दों में 'नञ्' द्वारा जिस 'गौ' का प्रतिषेध किया जाता है उसका स्वरूप जाने बिना 'अगौ' से निवृत्ति नहीं की जा सकती । संक्षेप में कहा जाय तो 'गौ' का ज्ञान हुए बिना गोभिन्न पदार्थों से 'गौ' की निवृत्ति नहीं की जा सकती, अतः अपोह की कल्पना दोषपूर्ण है, एवं गोशब्द से होने वाला 'अगोव्यावृत्ति' रूप अपोहज्ञान अन्योन्याश्रय युक्त है । २८८ यदि 'अगौ' शब्द के द्वारा जिस 'गौ' का निषेध किया जाता है वह विधिरूप है तो 'समस्त शब्दों का अर्थ अपोह है' यह बौद्ध सिद्धान्त खण्डित हो जाता है, क्योंकि उनके द्वारा शब्द का विधिरूप अर्थ भी स्वीकार कर लिया गया है । २९० दिनाग कहते हैं कि नीलोत्पल आदि शब्द अर्थान्तर की निवृत्तिरूप विशिष्ट अर्थों का कथन करते हैं२८९ किन्तु दिड्नाग का कथन अयुक्त है, क्योंकि जिसका जिसके साथ वास्तव सम्बन्ध सिद्ध है वही उसके साथ विशिष्ट कहा जा सकता है। नील एवं उत्पल क्रमशः अनील एवं अनुत्पल के व्यवच्छेदक होने से अभाव रूप हैं, नीरूप हैं, अतः इनमें आधार एवं आधेय सम्बन्ध नहीं हो सकता । संयोग, समवाय, एकार्थसमवाय आदि सम्बन्ध भी अनील एवं अनुत्पल आदि की व्यावृत्ति रूप नीरूप पदार्थों में संभव नहीं है। नील एवं उत्पल में वास्तविक सम्बन्ध नहीं होने से इनमें उत्पल को नीलविशिष्ट नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है कि गौ, अश्वादि की बुद्धि से अपोह का अध्यवसाय नहीं होता, वस्तु का अध्यवसाय होता है, और अज्ञात अपोह किसी का विशेषण नहीं हो सकता। यदि अपोह का ज्ञान होना स्वीकार किया भी जाय तो भी अपोहकार ज्ञान का सद्भाव देखा नहीं जाता है, अतः तब भी अपोह ज्ञान किसी का विशेषण नहीं बन सकता । २९१ यदि शब्द और लिङ्ग से केवल 'अपोह' की प्रतीति होती है तो सारे शब्द अपोहमात्र का कथन करने के कारण पर्यायवाची हो जायेंगे। ऐसी स्थिति में विशेषण- विशेष्य में भेद, अतीत- अनागत २८६. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ. ५४४-५४५ २८७. सिद्धश्चागौरपोहोत गोनिषेधात्मकश्च सः । तत्र गौरव वक्तव्यो नजा यः प्रतिषिध्यते ॥ - श्लोकवार्तिक, अपोहवाद, ८३, उद्धृत प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२ पृ. ५४५ २८८. (१) स चेदगोनिवृत्त्यात्मा भवेदन्योन्यसंश्रयः । ३४७ सिद्धश्चेद् गौरपोहयार्थं वृथापोहप्रकल्पना ॥ - श्लोकवार्तिक, अपोहवाद, ८४ (२) गव्यसिद्धे त्वगौर्नास्ति तदभावे च गौ: कुत: । - श्लोकवार्तिक, अपोहवाद, ८५ २८९. दिङ्नागेन विशेषणविशेष्यभावसमर्थनार्थम् " नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानर्थानाहु: ।" इत्युक्तम् । प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ. ५४६ - २९०. नाधाराधेयवृत्त्यादिसम्बन्धश्चाप्यभावयोः । - श्लोकवार्तिक, अपोहवाद, ८५ २९१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग- २, पृ. ५४६-४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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