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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार ३४९ है। २९४ उनमें पर्युदासलक्षण अपोह का कथन जैनमत से विरुद्ध नही है। २९५ गौ शब्द के द्वारा बौद्ध जिस अगोनिवृत्ति सामान्य का कथन करते हैं उसे जैन 'गोत्व' सामान्य के रूप मे 'गौ' शब्द का वाच्य मानते हैं जो एक प्रकार से बौद्धों के अभावात्मक कथन का भावान्तरात्मक रूप है ।२९६ बौद्धमत में 'गौ' शब्द द्वारा 'गौ' स्वलक्षण का अभिधान नहीं होता,क्योंकि वह विकल्प का विषय नहीं है । अश्वादि की निवृत्ति करने वाले शाबलेय आदि गोव्यक्ति विशेष को गौ शब्द से अभिहित करते हैं तो वह बाहुलेय आदि गो व्यक्तियो में अन्वित नहीं हो सकेगा,इसलिए समस्त सजातीय शाबलेयादि पिण्डों में जो गोबुद्धि होती है वह गोत्व' नामक सामान्य ही है ।२९७ शब्द का वाच्य प्रसज्यरूप अपोह मानने पर शब्द के द्वारा कोई भी वस्तु सीधी वाच्य नहीं हो सकेगी। मात्र निषेध का ही कथन हो सकेगा ,जो उपयुक्त नहीं है ।२९८ दूसरो को ज्ञान कराने के लिये शब्द का प्रयोग किया जाता है । दूसरा व्यक्ति नील का ज्ञान करना चाहता है,मात्र अनीलनिषेध का नहीं। अजिज्ञासित अर्थ का प्रतिपादक पुरुष बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता एवं मात्र निषेध का कथन करने पर नील एवं उत्पल शब्द में सामानाधिकरण्य भी नहीं बतलाया जा सकता । वस्तुतः न की ही पर्युदासवृत्ति एवं प्रसज्यवृत्ति होती है । गो शब्द 'न' नहीं है अत : उसकी विधिरूप से ही प्रवृत्ति मानना चाहिए।२९९ बौद्ध - जो अर्थाकार प्रतिबिम्ब उत्पन्न होता है ,वही मुख्य अन्यापोह है और वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्ध है। प्रभाचन्द्र - ज्ञान में अर्थाकारता का हम खण्डन करते हैं । यदि अर्थाकार प्रतिबिम्ब को स्वीकार कर भी लिया जाय तो वह प्रतिबिम्ब किसका है ? स्वलक्षण अर्थ का है अथवा सामान्य का ? स्वलक्षण का तो वह प्रतिबिम्ब हो नहीं सकता,क्योकि स्वलक्षण अन्य समस्त अर्थों से व्यावृत्ताकारवान् होता है। प्रतिबिम्ब में अनुगत एकरूपता होती है, अतः स्वलक्षण में भी अनुगत एक रूपता स्वीकार करनी पड़ेगी ,फलत :स्वलक्षण की व्यावृत्तता ही नष्ट हो जाएगी । यदि ज्ञान में सामान्य का प्रतिबिम्ब बनता है तो यह भी अयुक्त है,क्योंकि बौद्ध मत में सामान्य असत् है अत;उसका प्रतिबिम्ब नहीं बन सकता। यदि शब्दविकल्प को ही अपने प्रतिबिम्ब का निश्चायक माना जाता है तो इससे बाह्यार्थ में प्रवृत्ति २९४. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ.५६३ २९५. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२ पृ.,५३८ । २९६. (१) अगोनिवृत्ति : सामान्यं वाच्यं ये : परिकल्पितम् । गोत्वं वस्त्वेव तेरुक्तमगोपोहगिरा स्फुटम् ॥-श्लोकवार्तिक, अपोहवाद, १, उद्धत प्रमेयकमलमार्तण्ड भाग-२ पृ. (२) जैन दार्शनिकों ने पर्युदास के बुद्ध्यात्मरूप अर्थप्रतिबिम्बकता का खण्डन किया है, द्रष्टव्य आगे षष्ठ अध्याय में अर्थाकारता का खण्डन, पृ. ३६८ २९७. तस्मात्सर्वेष यदपं प्रत्येकं परिनिष्ठितम । गोबुद्धिस्तन्निमित्ता स्याद् गोत्वादन्यच्च नास्ति तत् ।।-श्लोकवार्तिक, अपोहवाद, १० २९८. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. ५६३-५६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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