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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार ३४३ पृथक् पृथक् रूप से घट' शब्द का संकेत प्रहण करने की आवश्यकता नहीं रहती । प्रत्येक वस्तु सदृशासदृशात्मक होती है,वह तज्जातीय द्रव्यों के सदृश तथा विजातीय द्रव्यों से विसदृश होती है, यथा 'घट' वस्तु तत्सदृश घटों के सदृश तथा पटआदि से विसदृश होती है। उसकी अन्य वस्तुओं से सदृशता सामान्य है तथा विसदृशता विशेष है । सामान्य,विशेष से पृथक् वस्तु में नहीं रहता तथा इसी प्रकार विशेष भी सामान्य से पृथक् वस्तु में नहीं होता,दोनों की प्रतीति एक ही वस्तु में होती है। हमें जो भी ज्ञान होता है वह सामान्यविशेषात्मक वस्तु का ही ज्ञान होता है। इसलिए सामान्यविशेषात्मक वस्तु में ही संकेत ग्रहण होता है ।२६४ विद्यानन्द द्वारा निराकरण विद्यानन्द अपोहवाद का निराकरण करते हुए कहते हैं कि यदि गौ' शब्द गोभिन्न की व्यावृत्ति करता है तो इसका अर्थ है कि वह गोत्व सामान्य का ही विधान करता है। इसलिए 'गौ' शब्द को अन्यापोह का विषय मानना उचित नहीं है ।२६५ यदि 'गौ' शब्द अगोनिवृत्ति को भी अन्यनिवृत्ति' के रूप में प्रतिपादित करता है तो 'गौ' शब्द का कोई अभिधेय नहीं हो सकेगा एवं अनवस्था दोष का प्रसंग आ जायेगा। विद्यानन्द के कथन का तात्पर्य है कि 'गो' शब्द के द्वारा जिस प्रकार अगोनिवृत्ति' का कथन किया जाता है,क्या उसी प्रकार अगोनिवृत्ति' का अनगोनिवृत्ति के रूप में अभिधान किया जाता है। यदि यह क्रम जारी रहता है तो अनवस्था दोष आ जाता है । यदि यह क्रम बंद हो जाता है तो किसी शब्द का विध्यर्थ अवश्य मानना होगा ।२६६ विद्यानन्द कहते हैं कि शब्द को बाह्यार्थ का वाचक नहीं मानकर विवक्षा का प्रतिपादक माना जाता है तो “समस्त शब्द अन्यापोह का कथन करते हैं, बौद्धों का यह कथन खण्डित हो जाता है ।२६७ __ शब्द का विषय अन्यापोह मानने पर शब्द से जनसाधारण की अर्थ में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। शब्द किसी अन्य कार्य में प्रवृत्त करने के लिए कहे जायें तथा प्रवृत्ति किसी अन्य कार्य में हो सकती है।२६८ २६४. तत्समानासमानेषु ततावृत्तिनिवृत्तये । संक्षेपेण क्वचित् कश्चिच्छब्दः संकेतमश्नुते ॥-न्यायविनिश्चय, २१४ २६५.(१) यदि गौरित्ययं शब्दो विधत्तेऽन्यनिवर्तनम्।। विदधीत तदा गोत्वं तन्नान्यापोहगोचरः।- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.५.४२ (२) ऐसा ही खण्डन कमारिल भट्टद्वारा किया गया हैअगोनिवृत्ति : सामान्य वाच्यं यै : परिकल्पितम् । गोत्वं वस्त्वेव तैरुक्तमगोपोहगिरा स्फुटम् ।। श्लोकवार्तिक, अपोहवादपरिच्छेद, १ २६६. अगोनिवृत्तिमप्यन्यनिवृत्तिमुखतो यदि । गोशब्द : कथयेनूनमनवस्था प्रसज्यते ॥-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.५.४३ २६७. वक्तुरिच्छां विधत्तेऽसौ बहिर न जातुचित् । शब्दोऽन्यापोहकृत्सर्व : यस्य वाध्यविजृम्भितम् ॥-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.५.४४ २६८. अन्यापोहे प्रतीते च कथमधे प्रवर्तनम् । शब्दात्मिध्येज्जनस्यास्य सर्वथातिप्रसंगत : ॥-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.५.४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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