________________
३४२
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
स्वलक्षण-क्षण का सदृश अन्य स्वलक्षण-क्षण ही दृष्ट होता है ।२५८
अर्थक्रिया में समर्थ होने से संकेत को निष्फल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि व्यवहारकाल में शब्द संकेत से प्रत्यक्ष,स्मृति,प्रत्यभिज्ञान,तर्क,आदि का अविसंवादी ज्ञान देखा जाता है । २५९ अपोह खपुष्प के समान नीरूप है, अत: अपोह में शब्द संकेत मानना उचित नहीं है ।२६° शब्द संकेत तो सामान्यविशेषात्मक अर्थ में होता है । शब्द को यदि बौद्ध संकेताभास के कारण निरर्थक एवं अप्रमाण मानते हैं तो यह उचित नहीं है,क्योंकि तब तो उन्हें प्रत्यक्ष एवं अनुमान को भी निरर्थक मानना होगा। स्वलक्षण अर्थ को प्रत्यक्ष एवं अनुमान का कारण मानने पर व्यवहार काल में वह स्वलक्षण क्षण विद्यमान नहीं रहता,अतः अक्षणिकता की आपत्ति आती है । विकल्प से कल्पित दृश्य एवं प्राप्य का एकत्व अवस्तु है अतः उससे अर्थक्रिया सिद्ध करना उचित नहीं ठहरता है। ____ अकलङ्क प्रतिपादित करते हैं कि अर्थ एवं शब्द में स्वतःकथञ्चित् वाच्यवाचक सम्बन्ध है । यदि वाच्य-वाचक सम्बन्ध न होता तो “इसने क्या कहा है ” इस प्रकार की वाच्यविशेष शंका नहीं होती ।२६१
बौद्ध दार्शनिक मानते हैं कि बुद्धि से अपोह युक्त अर्थों में सामान्य की प्रतिपत्ति होती है तथा अतद्हेतुफल का अपोह होता है,किन्तु बौद्धों की यह मान्यता उचित नहीं है क्योंकि वैसी प्रतिपत्ति होती हुई नहीं देखी गयी है। पर विधिरूप में ही सामान्यविशेषात्मक अर्थ का बोध होता है । एक अर्थ में संकेत ग्रहण करके तत्समान परिणामी द्रव्यों में संकेत का व्यवहार किया जाता है। शब्द के द्वारा वस्तुभूत सामान्यविशेषात्मक अर्थ का ग्रहण किया जाता है न कि काल्पनिक अपोह का ।
अकलङ्क ने जैनदर्शनानुसार प्रतिपादित किया है कि किसी एक वस्तु में संकेत ग्रहण करके तत्सदृश अन्य वस्तुओं में भी उसका व्यवहार किया जाता है,२६३ यथा एक घट वस्तु में 'घट' शब्द का संकेत ग्रहण कर तत्सदृश अन्य घटों में भी ‘घट' शब्द का व्यवहार किया जाता है,समस्त घटों में
२५८.अशक्यसमयं रूपं यथार्थानामन्यभाक ।
अशक्यदर्शनं रूपं तथार्थानामनन्यभाक् -सिरि निश्चय, ९.२३ यथा अर्थरूपं तथैव द्रष्टुमशक्यं कारणस्यापि दृष्टेवियत्वात् कलभेदात् तत्समानाकारदर्शनात् ।
-सिद्धिविनिश्चयवृत्ति (टीका सहित), ९.२३, पृ. ६३५ २५९. द्रष्टव्य, सिद्धिविनिश्चयटीका, पृ. ६३८ । २६०.(१) न पुनावृत्तौ नीरूपत्वात् खपुष्पवत् ।-सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, पृ. ६३८.२.
(२) कुमारिल भट्ट ने भी अपोह को नीरूपाख्य, अवस्तु, अभाव आदि शब्दों से द्योतित किया है । द्रष्टव्य, श्लोकवार्तिक,
अपोहवादपरिच्छेद, श्लोक १५,४५,९१,१६३ आदि २६१. वाच्यवाचकसम्बन्ध : स्वत:शंकाऽन्यथा कथम्
असंकेतितानन्तवाच्यभेदेऽपि गिरां श्रुतौ ॥-सिद्धिविनिश्चय, ९.३० २६२. सामान्यं चेदपोहिनां बुया सन्दर्यते यथा ।
अतदेतुफलापोह:न तथा प्रतिपत्तित: ।- न्यायविनिश्चय, १९४-१९५ २६३. तत्रैकमभिसन्धाय समानपरिणामिषु ॥
समय: तताकारेषु प्रवर्तेतेति साध्यते । न्यायविनिश्चय , १९८-१९९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org