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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
अभयदेवसूरि का योगदान
सिद्धसेन के टीकाकार अभयदेवसूरि ने अपोहवाद का न्याय,मीमांसा,व्याकरण आदि विभिन्न दृष्टियों से पर्याप्त आलोडन-विलोडन किया है तथा उसका विकास-क्रम से उपस्थापन कर जैनदृष्टि से परीक्षण किया है । शब्दार्थ-सम्बन्ध के विषय में जितना चिन्तन अभयदेवसूरि ने किया है,संभवतः उतना किसी भी अन्य जैन दार्शनिक ने नहीं। सन्मतितर्कटीका का द्वितीय-भाग पूर्णरूपेण शब्दार्थ-मीमांसा से सम्बद्ध है,२६९ जो पृथक् रूप से शोध-प्रबन्ध का विषय बन सकता है। ____अभयदेवसूरिने प्रकट किया है कि मीमांसा-दार्शनिककुमारिल भट्ट ने अपोहवाद का जो खण्डन किया है वह अपोह को 'निषेधमात्र' मानकर ही किया है, किन्तु अपोह निषेध-मात्र नहीं है, क्योंकि शान्तरक्षित ने कुमारिल का खण्डन करते हुए उसे अर्थ-प्रतिबिम्ब रूप में प्रस्तुत किया है। अर्थ-प्रतिबिम्ब को निषेधमात्र नहीं कहा जा सकता।२७° शब्दों को सुनने पर बुद्धि में अर्थ का प्रतिबिम्ब बनता है जो अन्य अर्थ-प्रतिबिम्बों का अपोह करने के कारण शब्द का वाच्य या कार्य कहा जाता है ।२७१ पर्युदास एवं प्रसज्य दो प्रकार के अपोहों में यह बुद्ध्यात्म नामक पर्युदास ही शब्द का मुख्यार्थ कहा गया है,अन्य अपोह गौण है । अभयदेवसूरि कहते हैं कि बौद्ध मत में शब्द का वाच्यार्थ के साथ जो वाच्यवाचक भाव या कार्यकारण भाव है वह सांवृतिक है,पारमार्थिक नहीं । इसी प्रकार सामान्यलक्षण अपोह में संकेत ग्रहण करना भी सांवृतिक है, पारमार्थिक नहीं है ।२७२ क्योंकि परमार्थतः बाह्यार्थ का शब्द से कथन नहीं किया जा सकता।
__ अर्थ दो 'पकार का होता है- बाह्य एवं बुद्ध्यारूढ । बाह्य अर्थ का शब्द के साथ पारमार्थिक रूप से कोई सम्बन्ध नहीं है । अतः बाह्यअर्थ का परमार्थतः शब्द द्वारा अभिधान शक्य नहीं है। केवल बाह्यार्थ के अध्यवसायी विकल्प को उत्पन्न करने के कारण उपचार से शब्द को अर्थ का वाचक कहा जाता है ।२७३ बुद्ध्यारूढ अर्थ (बौद्धार्थ) का ही शब्द के द्वारा मुख्यतः कथन किया जाता है ।२७४
अगोनिवृत्ति के रूप में जो गाय का अभिधान किया जाता है वह उसका अश्वादि से अन्यत्व प्रतिपादन करने के लिए किया जाता है। परमार्थतः गौ आत्मगतरूप है ।२७५ शान्तरक्षित आदि के अनुसार शब्दों का परमार्थतःविधिरूप में कोई वाच्य अर्थ नहीं है,किन्तु सांवृत रूप में शब्दार्थ विधिरूप २६९. द्रष्टव्य, तत्त्वबोधविधायिनीटीका, पृ. १६९-२७० २७०. तुलनीय-निषेधमात्र नैवेह शाब्दे ज्ञानेऽवभासते ।- तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, पृ. ३९३ २७१. तत्त्वबोधविधायिनी, पृ. २०३.१२ २७२.(१) तत्त्वबोधविधायिनी, पृ.२१२
(२) न वाच्यं वाचकं चास्ति परमार्थेन किशन ।- तत्त्वसंग्रह, १०८९ २७३.दिविधो धर्थ : बायो बुयारूढश्च । तत्र बाह्यस्य न परमार्थतोऽभिधानं शब्द:,केवलं तदध्यवसायिविकल्पोत्पा
दनादुपचारादुक्तम् शब्दोऽर्थानाह" इति ।-तत्त्वबोधविधायिनी, पृ. २१३ २७४, यस्तु बुद्यारूढोऽर्थस्तस्य मुख्यत एव शब्दरभिधानम् । तत्त्वबोधविधायिनी, पृ. २१३.६ २७५. अगोनिवृत्तियों गौरभिधीयते सोऽश्वादिभ्यो यदन्यत्वं तत्स्वभावैव नान्या।-तत्त्वबोधविधायिनी, पृ.२१३.२०
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