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________________ ३३८ में अन्तर्भाव करना उचित नहीं है। बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा अपोह - विचार बौद्ध दर्शन में शब्द से अर्थ का वाच्य अन्यापोह है । अतः अब अन्यापोह अथवा अपोह पर विचार अपेक्षित है। बौद्धदर्शन में अपोह २२९ .२३० की यह मान्यता है कि शब्द बाह्यार्थ को प्रकाशित नहीं कर सकते । बाह्य अर्थ स्वलक्षणरूप होता है जो क्षणिक एवं निरंश होता है अतः शब्द स्वलक्षण में संकेतग्राही नहीं होता है। दिङ्नाग ने स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि शब्द विकल्प से उत्पन्न होते हैं तथा विकल्प शब्द से उत्पन्न होते हैं, वे दोनों परस्पर कार्यकारण रूप में सम्बद्ध हैं तथा शब्द स्वलक्षण अर्थ का स्पर्श करने में भी समर्थ नहीं हैं । शब्द एवं अर्थ दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं तथा उनका परस्पर न तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध है और न तदुत्पत्तिलक्षण सम्बन्ध । शब्द को श्रोत्र से सुना जाता है जबकि अर्थ को चक्षु आदि से देखा जाता है । इसलिए इनमें तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध नहीं है । २३१ अर्थ से शब्द उत्पन्न नहीं होता है, अर्थाभाव में भी शब्द देखा जाता है इसलिए इनमें तदुत्पत्तिलक्षण सम्बन्ध भी नहीं है। २३२ 'दाह' शब्द को सुनने पर जलने का अनुभव नहीं होता, ३३ इससे सिद्ध होता है कि शब्द से अर्थ का कोई सम्बन्ध नहीं है । शब्द के द्वारा सामान्य या जाति को भी विषय नहीं किया जाता, क्योंकि यह बौद्ध मत में असत् है । बौद्धों ने स्वलक्षण से भिन्न एक सामान्यलक्षण प्रमेय की कल्पना अवश्य की है, किन्तु वह नैयायिकों के सामान्य से भिन्न है । वह सामान्यलक्षण अर्थ ही अन्यापोह के रूप में शब्द का विषय बनता है । अन्यापोह का संक्षिप्त नाम अपोह है । अन्यापोह का अर्थ है अतद्व्यावृत्ति । 'गौ' शब्द गोभिन्न (अगो) की व्यावृत्ति (निषेध) करके अपना अर्थ (अभिप्राय) प्रकट करता है । २३४ अर्थात् जो वैसा (तत्) नहीं है उसकी व्यावृत्ति करना अन्यापोह है । 'अन्यापोह' के सिद्धान्त का सर्वप्रथम प्रणयन दिनाग ने किया था । २३५ प्रमाणसमुच्चय का पंचम परिच्छेद अपोह से ही सम्बद्ध है, किन्तु आज वह संस्कृत २२९. तत्र स्वलक्षणं तावन्न शब्दे : प्रतिपाद्यते । तत्त्वसङ्ग्रह, ८७१ २३०. विकल्पयोनय: शब्दा: विकल्पा : शब्दयोनयः । कार्यकारणता तेषां नार्थ शब्दा: स्पृशन्त्यपि ॥ दिङ्नाग, उद्धृत Buddhist Logic, Vol. 2, p. 405, F.N. 1 २३१. श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दो गृह्यते, अर्थस्तु चक्षुरादिना । - तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, १५१२, पृ. ५३८ २३२. नापि तदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्धः, व्यभिचारात् । - तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, १५१२, पृ. ५३९ २३३. अन्यथैवाग्निसम्बन्धाद् दाहं दग्धोऽभिमन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहाद्यर्थः प्रतीयते ॥ वाक्यपदीय, काण्ड- २ श्लोक ४१८ । यह श्लोक बौद्धमत की पुष्टि में अनेकत्र उद्धृत किया गया है। १३४. स्वार्थमन्यापोहेन भाषते । प्रमाणसमुच्चय ५.१, उद्धृत, तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, ५२९ २३५. (i) Buddhist Logic, Vol. 2, p. 404 (ii) The Buddhist Philosophy of Universal flux, p.131 (iii) The Differentiation Theory of Meaning in Indian Logic, p.25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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