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________________ स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह - विचार में अनुपलब्ध है । प्रायः अपोह का स्वरूप निषेधात्मक अथवा अभावात्मक होता है, क्योंकि इसमें अतद् का निषेध किया जाता है । अतद् का निषेध करने पर भी वह अपोह्य, आधार, वासना आदि भेदों से अनेक प्रकार का होता है। .२३६ शान्तरक्षित के तत्त्वसङ्ग्रह में सामान्य रूप से अपोह के दो भेद प्रतिपादित हैं- पर्युदास एवं प्रसज्य । पर्युदास अपोह भी दो प्रकार का है बुद्ध्यात्मा एवं अर्थात्मा । २३७ इनमें बुद्ध्यात्मा पर्युदास प्रमुख अपोह है, जो बुद्धि में अर्थप्रतिबिम्ब के रूप में रहता है। २३८ जिस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान में अर्थाकारता होती है उसी प्रकार बुद्ध्यात्मा अपोह में अर्थ प्रतिबिम्ब बनता है । ' अर्थात्मा' पर्युदास अपोह 'स्वलक्षण' अर्थरूप है जो अन्य अर्थों से उसकी व्यावृत्ति का बोध कराता है । प्रसज्य नामक अपोह भाव का अभाव रूप में ज्ञान कराता है यथा 'गो' का अर्थ है 'अगो' का प्रतिषेध । ,२३९ ० २४० इन प्रकार के अपोहों में मुख्य रूप से बुद्ध्यात्मा अपोह को ही शब्दों के द्वारा प्रतिपादित किया जाता है। शब्द के द्वारा बुद्धि में अर्थ प्रतिबिम्ब उत्पन्न होता है जो विकल्पान्तर अर्थों का अपोह करता है । शब्द से उत्पन्न होने के कारण अपोह रूप अर्थप्रतिबिम्ब वाच्य होता है तथा शब्द वाचक होता है । दूसरे शब्दों में शब्द कारण होता है तथा अर्थप्रतिबिम्ब कार्य होता है । २४१ साक्षात् शब्द से जन्य होने के कारण प्रतिबिम्बलक्षण अपोह मुख्य शब्दार्थ है ।' अन्य दोनों अपोह गौण रूप से शब्दार्थ हैं। कमलशील कहते हैं कि अर्थप्रतिबिम्ब रूप में जो बौद्धदर्शन में अपोह प्रतिपादित किया गया है वह भी एक विशेष प्रकार का निषेध मात्र है उसे भावात्मक नहीं जानना चाहिए । २४३ अर्थप्रतिबिम्ब २४२ २३६. तत्र केचिद् बौद्धा: परिहारमाहु: - न खल्वपोह्यभेदाद, आधारभेदाद् वा अपोहानां भेदः, वासनाभेदाद् भेद: सद्रूपता चापोहानां भविष्यति । - तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, ९५९, पृ. ३७६ २३७. तथाहि द्विविधोऽपोहः पर्युदासनिषेधत: । द्विविध: पर्युदासोऽपि बुद्धयात्मार्थात्मभेदतः ॥ - तत्त्वसङ्ग्रह, १००३ ३३९ 234. When a word is spoken, it is the thought image of an object which is directly evoked in our mind, and therefore that is the principal meaning of a word.-D.N., Shastri, Critique of Indian Realism, p. 358 २३९. यज्ज्ञाने भात्यर्थप्रतिबिम्बकम् । - तत्त्वसंग्रह, १००५ २४०. प्रसज्यप्रतिषेधश्च गौरगौर्न भवत्ययम् । अतिविस्पष्ट एवायमन्यापोहोऽवगम्यते ॥ -- तत्त्वसंग्रह, १००९ . तत्रायं प्रथम : शब्दैरपोह : प्रतिपाद्यते । २४१. बाह्यार्थाध्यवसायिन्या बुद्धे: शब्दात् समुद्भवात् ॥ तद्रूपप्रतिबिम्बस्य धियः शब्दाच्च जन्मनि । वाच्यवाचक भावोऽयं जातो हेतुफलात्मक: ॥-तत्त्वसङ्ग्रह, १०१०-११ २४२. एवं तावत् प्रतिबिम्बलक्षणोऽ पोहः साक्षाच्छब्दैरुपजन्यमानत्वात् मुख्यः शब्दार्थ इति । - तत्त्वसंग्रहपंजिका, १०१२, पू. ३९३ 783. But one should not forget that according to the Buddhist, even the thought-image is not positive, but is only a kind of special negation (paryudasa ). Critique of Indian Realism, p. 359 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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