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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार ३३७ जा सकता,क्योंकि इस प्रकार का अन्वयव्यतिरेक तो प्रत्यक्ष-प्रमाण में भी उपलब्ध होता है । जहां घट होता है वहां उसका प्रत्यक्ष होता है तथा जहां घट नहीं होता वहां उसका प्रत्यक्ष भी नहीं होता।२२६ शब्द में अर्थ को प्रकाशित करने की योग्यता होती है,अत:शब्द प्रमाण है । उसका अनुमान में अन्तर्भाव करना उचित नहीं है ,क्योंकि वह अनुमिति क्रिया के बिना भी अर्थ का प्रकाशन करता है । बौद्ध जिस प्रकार अर्थाभाव में शब्द के विद्यमान होने से अर्थ के साथ शब्द का व्यभिचार मानते हैं उसी प्रकार विवक्षा के साथ भी शब्द का व्यभिचार देखा जाता है। किसी को पुकारते समय गोत्र स्खलन आदि होने पर विवक्षा से अन्य शब्दों का प्रयोग दिखाई देता है अतः विवक्षा के साथ भी शब्दों का व्यभिचार है । यदि सुविवेचित कार्य जिस प्रकार कारण के साथ व्यभिचरित नहीं होता है २२७ उसी प्रकार विचार पूर्वक प्रयुक्त शब्दों का विवक्षा के साथ व्यभिचार नहीं पाया जाता है तो यह नियम तो संकेत आदि से युक्त शब्द द्वारा बाह्यार्थ के वाच्य होने में भी लागू होता है । इसीलिए भली प्रकार सोच समझकरप्रयुक्त किये गये शब्दों का सामान्यविशेषात्मक बाह्यार्थ के साथ व्यभिचार दिखाई नहीं देता है। शब्द का अनुमेय विवक्षा को या विवक्षा में अधिरूढ अर्थ को मानना उचित नहीं है,क्योंकि उससे बाह्यार्थ की प्रतिपत्ति,उसमें प्रवृत्ति एवं प्राप्ति नहीं होती है । जिस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान से प्रतिपत्ता को अर्थ की प्रतिपत्ति होती है उसी प्रकार संकेतसापेक्ष शब्दों से अर्थ की प्रतिपत्ति होती है। प्रभाचन्द्र बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि विवक्षा किसे कहते हैं ? शब्द के उच्चारण करने की इच्छा मात्र विवक्षा है,अथवा इस शब्द से यह अर्थ कहूंगा' इस प्रकार अभिप्राय विवक्षा है ? प्रथमपक्ष में तो वक्ता एवं श्रोता की शास्त्रादि में प्रवृत्ति नहीं हो सकती,क्योंकि कोई भी सजग वक्ता और श्रोता शब्दोच्चारण की इच्छा मात्र के लिए शास्त्र या वाक्यान्तर का प्रणयन या श्रवण करने के लिए प्रवृत्त नहीं होता है। फिर तो 'दशदाडिम' आदि निरर्थक वाक्यों एवं अन्य सार्थक वाक्यों में कोई भेद ही नहीं रह जायेगा। यदि इस शब्द से यह अर्थ कहूंगा' इस अभिप्राय को विवक्षा कहते हैं तथा शब्दों द्वारा विवक्षा का अनुमान होता है तो यह मान्यता भी उचित नहीं है,क्योंकि शुकसारिका एवं उन्मत्तादि पुरुषों के शब्द विवक्षा का कथन नहीं करते हैं ।२२८ सारांश यह है कि बौद्ध दार्शनिक जहां शब्द के द्वारा मात्र वक्ता की विवक्षा का अनुमान होना स्वीकार करते हैं वहां जैन दार्शनिक शब्द के साथ अर्थ का संकेत सम्बन्ध स्वीकार करते हुए शब्द या आगम को पृथक प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। जैन दार्शनिकों का मन्तव्य है कि जो शब्द अविसंवादक रूप से अर्थ का कथन करते हैं वे प्रमाण हैं । विवक्षा से अन्यत्र भी शब्द का प्रामाण्य है तथा विवक्षा भी शब्द से व्यभिचरित हो सकती है, इसलिए विवक्षा के कारण शब्द का अनुमानप्रमाण २२६. न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ५३२-५३५ एवं स्याद्वादरत्नाकर, पृ.६२०-६२२ २२७. तुलनीय, सुविवेचितं लिङ्गन व्यभिचरति ।-तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, पृ. ५२६ २२८. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. ५७४-७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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