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________________ ३३६ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा व्यवस्था अर्थप्राप्ति एवं अप्राप्ति पर निर्भर करती है विवक्षा पर नहीं । बौद्ध स्वलक्षण में संकेत ग्रहण नहीं मानते हैं । २२४ • अकलङ्क ने जैन मतानुसार निरूपण करते हुए प्रतिपादित किया है कि सामान्यविशेषात्मक अर्थ में ही शब्दों द्वारा संकेत ग्रहण किया जाता है मात्र सामान्य एवं स्वलक्षण अर्थों में नहीं। क्योंकि केवल सामान्य में यदि संकेत ग्रहण किया जाय तो विशेष व्यक्तियों में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। केवल मात्र विशेष में भी संकेत ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि अनन्त विशेष हमारे ज्ञान के विषय नहीं बनते हैं। पदार्थों में रहे हुए सदृश धर्मों की अपेक्षा से शब्द का अर्थ में संकेत होता है। २२५ जिस शब्द व्यक्ति में अर्थव्यक्ति का संकेत ग्रहण किया जाता है वह भले ही व्यवहार काल तक न रहे पर तत् सदृश दूसरे शब्द से तत् सदृश दूसरे अर्थ का बोध होने में कोई बाधा नहीं है। एक घट शब्द का एक घट अर्थ में संकेत ग्रहण करने के पश्चात् तत्सदृश यावत् घट शब्दों की घट अर्थों में प्रवृत्ति होती है। संकेत ग्रहण करने के पश्चात् शब्दार्थ का स्मरण कर व्यवहार किया जाता है, अतः शब्द को अर्थ का संकेतग्राही मानकर प्रमाण मानने में कोई बाधा नहीं है । प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि के तर्क प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि द्वारा आगम का पृथक् प्रामाण्य स्थापित करते हुए बौद्ध मत का खण्डन करने हेतु जो तर्क दिये गये हैं उनमें विशेष अन्तर नहीं है । इन दार्शनिकों का मंतव्य है कि शब्द का अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता, क्योंकि शब्द एवं अनुमान - प्रमाण के विषय भिन्न-भिन्न हैं । शब्द का विषय अर्थमात्र है जबकि अनुमान प्रमाण का विषय साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी है । शब्द एवं अनुमान प्रमाण की सामग्री भी भिन्न है। अनुमान में पक्षधर्मत्वादि त्रिरूपता संभव है जबकि वह शब्द में संभव नहीं है। शब्द में पक्षधर्मता संभव नहीं है, क्योंकि उसमें धर्मी का अभाव है । यदि शब्द ही धर्मी है तो हेतु क्या होगा ? शब्द को ही हेतु एवं धर्मी मानने पर प्रतिज्ञातार्थैकदेशत्व दोष का प्रसंग आता है। शब्द एवं अर्थ में अन्वय एवं व्यतिरेक भी संभव नहीं है, क्योंकि जिस देश में शब्द रहता है वहां अर्थ नहीं होता। शब्द तो मुख में उपलब्ध होता है जबकि अर्थ भूमि पर । व्यवहारी पुरुष भी जहां जहां पिण्डखजूर शब्द को सुनता है वहां वहां पिण्डखजूर अर्थ के अस्तित्व नहीं मानता है, जबकि अनुमान में जहां धूम होता है वहां अग्नि अवश्य होती है। शब्द एवं अर्थ में अन्वय-सम्बन्ध नहीं है तो व्यतिरेक भी नहीं होता, क्योंकि अन्वयपूर्वक ही व्यतिरेक होता है । यदि जो शब्द जिस अर्थ में देखा जाता है, वह उसका वाचक होता है तथा जिस अर्थ में नहीं देखा जाता है वह उसका वाचक नहीं होता इस प्रकार का अन्वयव्यतिरेक मानते हैं तो वह जैनों को भी अभीष्ट है । किन्तु इस प्रकार का अन्वयव्यतिरेक होने से शब्द को अनुमान में समाविष्ट नहीं किया २२४. शब्दाः संकेतितं प्राहुर्व्यवहाराय स स्मृतः । तदा स्वलक्षणे नास्ति संकेतस्तेन तत्र न ॥-प्रमाणवार्तिक, ३.९२ २२५. समानपरिणामार्थे संकेताच्छब्दवृत्तित: ।-प्रमाणसंग्रह, ६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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