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स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार
तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति प्रतिबन्ध के अदृष्ट होने पर भी शब्द से अर्थ का अविसंवादी ज्ञान होता है, इसलिए शब्द अथवा श्रुतज्ञान को प्रमाण मानना चाहिए । २१९ यदि क्वचित् व्यभिचार होने से समस्त शब्दों का अर्थ के साथ अप्रामाण्य माना जाता है तो ऐसा व्यभिचार तो वक्ता के अभिप्राय अर्थात् 'विवक्षा' का अनुमान करने में भी संभव है, वक्ता का अभिप्राय भिन्न होने पर भी वह न चाहते हुए भी भिन्न शब्दों का उच्चारण कर सकता है, अतः शब्दों से वक्ता के अभिप्राय का अनुमान करना भी दोषयुक्त होने से अप्रमाण सिद्ध होगा । २२०
यदि हेतुवादरूप शब्द के द्वारा अर्थ का निश्चय न हो तो साधन और साधनाभास की व्यवस्था नहीं हो सकती। इसी प्रकार आप्त के वचन के द्वारा बाह्यार्थ का निश्चय न हो तो आप्त और अनाप्त की व्यवस्था भी नहीं हो सकती । २२१. सुगत एवं तदितर कपिल आदि में आप्त एवं अनाप्त की व्यवस्था के लिए स्वयं बौद्धों ने साधनाङ्ग एवं असाधनाङ्ग का निरूपण किया है, जो शब्द के प्रामाण्य को पुष्ट करता है ।
यदि पुरुष के अभिप्रायों में विचित्रता होने के कारण शब्द अर्थ का व्यभिचारी हो सकता है, अथवा तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति प्रतिबन्ध के असिद्ध होने से सर्वत्र शब्द के प्रामाण्य में विश्वास नहीं होता है तो अकलङ्कदेव कहते हैं कि तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के बिना भी परोक्ष अर्थ का अविसंवादी ज्ञान होता है । " यह वृक्ष है, शिंशपा होने से” तथा “यहां अग्नि है, धूम होने से ” इन अनुमानवाक्यों में स्वभाव एवं कार्यहेतु सर्वथा अव्यभिचरित नहीं है, क्योंकि शिशपा कहीं लता भी हो सकती है, तथा अग्नि कहीं मणि आदि से भी उत्पन्न हो सकती है। तब “ धूम अग्नि से ही उत्पन्न होता है, अन्य पदार्थ से नहीं” यह नियम कैसे बन सकता है। जिस प्रकार कार्य एवं स्वभावहेतु का प्रामाण्य स्वीकार किया गया है उसी प्रकार शब्द का अपने अर्थ को अविसंवादकरूप से प्रकाशित करने के कारण प्रामाण्य मानना चाहिए । २२२
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अकलङ्क बौद्ध मंतव्य का निरसन करते हुए कहते हैं कि यदि शब्द विवक्षामात्र के वाचक माने जाते हैं तो उनमें सत्यत्व एवं मिथ्यात्व की व्यवस्था नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों ही प्रकार के (सत्य एवं मिथ्या) शब्द अपनी अपनी विवक्षा का अनुमान कराते हैं। २२३. शब्द में 'सत्य एवं असत्य की २१९. यथा कृत्तिकादे: शकटादिज्ञानं स्वभावप्रतिबन्धमन्तरेण तथैवादृष्टप्रतिबन्धार्थाभिधानं ज्ञानमविसंवादकम् ।- लघी
यस्त्रयवृत्ति, २७, अकलङ्कयन्थत्रय, पृ. ९
२२०. (१) क्वचिद् व्यभिचारे साकल्येनाऽनाश्वासे वक्त्रभिप्रायेऽपि वाचः कथमनाश्वासो न स्यात् तत्रापि व्यभिचारसम्भ वात् । तथानिच्छत: श्रुतिकल्पनादुष्टादे: उच्चारणात् । लघीयस्त्रयवृत्ति २७, अकलङ्कयन्यत्रय, पृ. ९
(२) द्रष्टव्य, लघीयस्त्रय, ६४-६५
२२१. आप्तोक्तेर्हेतुवादाच्च बहिरर्थाविनिश्चये । सत्येतरव्यवस्था का साधनेतरता कुत: ॥ - लघीयस्त्रय, २८ २२२. लघीयस्वयवृत्ति, २९, अकलङ्कां धत्रय, पृ. १०
२२३. (१) वाक्यानामविशेषेण वक्त्रभिप्रेतवाचिनाम् ।
सत्यानृतव्यवस्था स्यात्तत्त्वमिथ्यादर्शनात् ॥ - सिद्धिविनिश्चय, ९.२८
(२) वक्त्रभिप्रायाद्भिन्नस्यार्थस्य वाचकाः शब्दाः सत्यानृतव्यवस्थान्यथानुपपत्तेः । लघीयस्त्रयवृत्ति, ६४, अकलङ्कग्रंथत्रय, पृ. २२.१४
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