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________________ ३३४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा शब्दों द्वारा भिन्न-भिन्न अर्थों अथवा पदार्थों का बोध होता है। शब्द एवं अर्थ (पदार्थ) में स्वाभाविक वाचक- वाच्य सम्बन्ध होता है, अर्थात् शब्द अपनी योग्यता अथवा स्वभाव से ही अर्थ के वाचक होते हैं। कुत्रचित् अर्थाभाव में शब्द उपलब्ध होने से सर्वत्र उनमें व्यभिचार नहीं कहा जा सकता। जैन दार्शनिकों ने जिस अर्थ को शब्द का वाच्य माना है वह मात्र स्वलक्षण या सामान्यलक्षण नहीं, अपितु सामान्यविशेषात्मक है बौद्ध मान्यता का खण्डन जैनदार्शनिकों ने आगम अथवा शब्द को अनुमान से पृथक् प्रमाण माना है तथा बौद्ध दार्शनिकों द्वारा उसका अनुमान में अन्तर्भाव करने का खण्डन किया है। यहां पर अकलङ्क प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि द्वारा किया गया खण्डन प्रस्तुत है । अकलङ्क की युक्तियां अकलङ्क श्रुतज्ञान अथवा आगम का अनुमान से पृथक् प्रामाण्य स्थापित किया है तथा बौद्धमत का सबल खण्डन करते हुए कहा है कि 'विवक्षा' से अन्यत्र भी शब्द का प्रामाण्य है। बाह्य द्वीप, देश, नदी, पर्वत, आदि का बौद्धों द्वारा प्रतिपादित स्वभाव हेतु एवं कार्यहेतु से ज्ञान नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनमें कभी इन हेतुओं का प्रत्यक्ष नहीं हुआ है तथापि देशान्तर में स्थित इन द्वीप, नदी, पर्वत आदि का अविसंवादी ज्ञान प्रसिद्ध है । २१६ यह अविसंवादी ज्ञान श्रुतज्ञान अथवा शब्द के प्रमाण मानने पर ही सिद्ध हो सकता है। यदि कहीं बाह्य अर्थ के अभाव में भी शब्द का प्रयोग होने से सभी शब्दों को व्यभिचारी कहा जाता है तो उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो प्रत्यक्ष एवं अनुमान में भी कुत्रचित् व्यभिचार या विसंवाद पाया जाता है। २१७ बौद्धदर्शन में जिस प्रकार अभ्रान्त या अव्यभिचारी विशेषण का प्रयोग किये बिना इन्द्रिय प्रत्यक्ष को प्रमाण नहीं कहा जाता है, इसी प्रकार अविसंवादी अथवा अव्यभिचारी श्रुतज्ञान को प्रमाण कहने में क्या बाधा है ? २१८ कुत्रचित् व्यभिचार पाये जाने से समस्त शब्दों के प्रामाण्य पर अविश्वास करना उचित नहीं है । तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति रूप प्रतिबन्ध के अभाव में भी जिस प्रकार कृत्तिका नक्षत्र के उदय से शकट नक्षत्र के उदय का अव्यभिचरित अनुमान कर लिया जाता है उसी प्रकार अर्थ एवं शब्द में २१६. प्रमाणं श्रुतमर्थेषु सिद्धं द्वीपान्तरादिषु । अनाश्वासं न कुर्वीरन् क्वचित् तद्व्यभिचारतः ॥ लघीयस्त्रय, २६ श्रुतज्ञानं वक्त्रभिप्रायादर्थान्तरेऽपि प्रमाणम् । कथमन्यथाद्वीपदेशनदीपर्वतादिकमदृष्टस्वभावकायं दिग्विभागेन देशान्तरस्थं प्रतिपत्तुमर्हति निरारेकमविसंवादं च । - लघीयस्त्रयवृत्ति का. २६, अकलङ्कग्रंथत्रय, पृ. ९ २१७. प्रायः श्रुतेर्विसंवादात् प्रतिबन्धमपश्यताम् । सर्वत्र चेदनाश्वास सोऽक्षलिङ्गधियां समः ॥ लघीयस्त्रय, २७ २१८ न हि इन्द्रियज्ञानम् अभ्रान्तमव्यभिचारीति वा विशेषणमन्तरेण प्रमाणम् अतिप्रसंगात् । तथाविशेषणे श्रुतज्ञाने कोऽपरितोष: ? - लघीयस्त्रयवृत्ति, २७, अकलङ्कग्रन्थत्रय, पृ. ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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