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________________ स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार ३३३ आप्तपुरुष दो प्रकार के होते हैं - लौकिक एवं लोकोत्तर । २०९ पिता, माता, गुरुजन आदि लौकिक आप्त हो सकते हैं तथा तीर्थंकर अथवा केवलज्ञानी पुरुष लोकोत्तर आप्त कहे गये हैं । २१० तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित वाणी को जैनदर्शन में 'आगम' कहा गया है। ये आगम जैनदर्शन में प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित हैं। लौकिक व्यवहार में जिस पुरुष का वचन अविसंवादी होता है, उसे भी प्रमाण मानने में जैन दार्शनिकों को आपत्ति नहीं है। बौद्ध आदि अन्य भारतीय दार्शनिकों की भांति जैन दार्शनिकों ने भी मीमांसासम्मत वेद के अपौरुषेयत्व एवं आगमत्व का खण्डन किया है। न्यायदर्शन में प्रतिपादित शब्द प्रमाण के स्वरूप से जैन दार्शनिकों का विरोध नहीं है, क्योंकि न्यायदर्शन में आप्तपुरुष के उपदेश को शब्द प्रमाण माना गया है। २११ | २१३ 'आगम' शब्द के स्थान पर अकलङ्क के ग्रंथों में 'श्रुत' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। वे श्रुतज्ञान को अविसंवादी होने से प्रमाण मानते हैं । २१२ जैन दर्शन में मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव एवं केवल इन पांच ज्ञानों का वर्णन हुआ है। अकलङ्क ने मतिज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान प्रमाणों के रूप में प्रस्तुत किया है, अवधि, मनः पर्यव एवं केवल ज्ञान को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में प्रस्तुत किया है। श्रुतज्ञान का भी प्रामाण्य प्रतिपादन आवश्यक था । श्रुतज्ञान को वे शब्दात्मक सम्यग्ज्ञान के रूप में स्वीकार करते हुए प्रतीत होते हैं, क्योंकि उन्होंने श्रुतज्ञान के तीन भेद किये हैं- १ प्रत्यक्षनिमित्तक, २ . अनुमाननिमित्तक एवं ३ आगमनिमित्तक । श्रुतज्ञान की उत्पत्ति प्रत्यक्ष,अनुमान अथवा आगम में किसी से भी हो सकती है। वे मति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध आदि ज्ञानों को शब्द का संयोजन होने पर श्रुतज्ञान मानते हैं । २१४ इससे प्रतीत होता है कि अकलङ्क द्वारा प्रयुक्त 'श्रुतज्ञान' शब्द शब्दयुक्त ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसमें आगम-प्रमाण भी समाविष्ट है। नय, सप्तभङ्गी एवं स्याद्वाद भी श्रुतज्ञान के ही फलित हैं। प्रमाण के द्वारा जाने गए विषय के एक अंश को नय के द्वारा जाना जाता है। प्रमाण सकलादेश एवं नय विकलादेश होता है। नयवाक्य का कथन सप्तभङ्गी एवं स्यात् के रूप में किया जाता है । जैन दार्शनिकों ने शब्द को अर्थ का वाचक स्वीकार किया है। वे शब्द में अर्थ का वाचक होने की सहज योग्यता मानते हैं तथा शब्दों को अर्थज्ञान कराने में संकेतक मानते हैं ।' २१५ शब्द अपने संकेत अर्थ के ही प्रकाशक होते हैं। एक शब्द से समस्त अर्थों का ज्ञान नहीं होता । भिन्न-भिन्न २०९. स च द्वेधा - लौकिको लोकोत्तरश्च ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ४.६ २१०. लौकिको जनकादिः, लोकोत्तरस्तु तीर्थंकरादिः । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ४.७ २११. आप्तोपदेशः शब्दः । - न्यायसूत्र, १.१.७ २१२. प्रमाणं श्रुतमर्थेषु । - लघीयस्त्रय, २६ २१३. (१) त्रिधा श्रुतमविप्लवम् । - प्रमाणसंग्रह, १.२ (२) श्रुतम् अविप्लवम् प्रत्यक्षानुमानागमनिमित्तम् । - प्रमाणसंग्रह, वृत्ति, १.२ २१४. ज्ञानमाद्यं मतिः संज्ञा चिन्ता वाभिनिबोधिकम् । प्राङ्नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् । - लघीयस्त्रय, १० २१५. सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः । - परीक्षामुख, ३.९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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