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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा भी सिद्ध किया है । पुरुष अथवा प्रदेश विशेष में शब्द का रहना पक्षधर्मत्व तथा तत्सदृश संतान में रहना सपक्षसत्त्व एवं विवक्षाविहीनपुरुषादि में शब्द का न रहना विपक्षासत्त्व है। इस प्रकार शब्द हेतु रूप्य लक्षण घटित किया गया है। २०१ ३३२ २०२ आप्तपुरुष के वचनों को भी बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने अविसंवाद सामान्य के कारण अनुमान प्रमाण ही माना है। दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार शब्द पौरुषेय है । उन्होंने मीमांसकों द्वारा प्रतिपादित वेद के नित्यत्व एवं अपौरुषेयत्व का अपने ग्रंथों में विस्तृत एवं प्रबल खण्डन किया है । बौद्ध कहते हैं कि शब्दों द्वारा विवक्षा का अनुमान संकेत की अपेक्षा से होता है। शब्द बाह्यार्थ में संकेतित नहीं होते हैं, तथा असंकेतित अर्थ का शब्द द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। इसलिए शब्द का संकेत ग्रहण पुरुषाश्रित होता है। २०३ संकेत द्वारा ही शब्द विवक्षा का अनुमान कराने में समर्थ होते हैं । इसलिए शब्दज्ञान में संकेतभेद के कारण भेद देखा जाता है। २०४ संक्षेप में कहा जाय तो बौद्ध मत में शब्द बाह्यार्थ के अभिधायक नहीं होते हैं, क्योंकि उनका बाह्यार्थ के साथ तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति रूप प्रतिबन्ध नहीं होता है । वे अन्यापोह द्वारा वक्ता के अभिप्राय का अनुमान मात्र कराते हैं । I जैनदर्शन में आगम प्रमाण जैनदार्शनिक शब्द अथवा आगम को अनुमान से पृथक् प्रमाण मानते हैं। आगम-प्रमाणका जैन दर्शन में क्या स्वरूप रहा है इस पर विचार अपेक्षित है। जैन दर्शन में आप्तपुरुष के वचनादि से आविर्भूत अर्थज्ञान को आगमप्रमाण कहा गया है। २०५ उपचार से आप्तपुरुष के वचनों को भी आगम माना गया है। २०६ क्योंकि उन वचनों से ही अर्थज्ञान प्रकट होता है । आप्त पुरुष को परिभाषित करते हुए वादिदेवसूरि ने कहा है कि जो अभिधेय वस्तु को यथावस्थित रूप से जानता हो तथा जैसा जानता हो वैसा कहता हो वह आप्त है। २०७ आप्त पुरुष का वचन अविसंवादी होता है। २०८ उसमें धोखा या वंचना नहीं होती । २०१. विवक्षायां च गम्यायां विस्पष्टेव त्रिरूपता । पुंसि धर्मिणि सा साध्या कार्येण वचसा यतः ॥ - तत्त्वसङ्ग्रह, १५२० २०२. आप्तवादाविसंवादसामान्यादनुमानता । - प्रमाणवार्तिक, ३.२१७ २०३. अर्थज्ञापनहेतुर्हि संकेतः पुरुषाश्रयः । - प्रमाणवार्तिक, ३.२२७ २०४. शब्दप्रतिपत्तिभेदस्तु संकेत भेदात् । - प्रमाणवार्तिक (स्ववृत्ति), पृ० २१.८ २०५. आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ४.१ २०६. उपचारादाप्तवचनं च । प्रमाणनयतत्त्वालोक, ४.२ २०७. अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानीते, यथाज्ञानं चाभिधत्ते स आप्तः ।- प्रमाणनयत्तत्त्वालोक, ४.४ २०८. तस्य हि वचनमविसंवादि भवति । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ४.५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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