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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार एवं वैशेषिक दो ऐसे दर्शन हैं जिनमें शब्द का प्रामाण्य अंगीकार करते हुए भी उसे पृथक् प्रमाण की कोटि में नहीं रखकर अनुमानप्रमाण में समाविष्ट कर लिया गया है। बौद्धों ने शब्द से वक्ता की विवक्षा का अनुमान स्वीकार किया है । वे शब्द से अर्थ का ज्ञान अन्यापोह के द्वारा स्वीकार करते हैं । अतः शब्द प्रमाण की चर्चा के अनन्तर अपोह पर विचार किया जाएगा। बौद्धदर्शन में शब्द का अनुमान-प्रमाण में अन्तर्भाव शब्द या आगम-प्रमाण को बौद्ध दार्शनिक अनुमान से भिन्न प्रमाण नहीं मानते हैं । वे इसका अनुमान -प्रमाण में ही अन्तर्भाव कर लेते हैं ।१९४ वैशेषिकों ने शब्द का अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव समान विधि के कारण किया है । १९५ जिस प्रकार लिङ्गदर्शन से व्याप्ति स्मरण होता है एवं फिर अनुमेय अर्थ का ज्ञान होता है उसी प्रकार शब्द से संकेतस्मरण द्वारा वाच्य अर्थ का ज्ञान होता है, इसलिए शब्द प्रमाण अनुमान से भिन्न प्रमाण नहीं है । बौद्ध कहते हैं कि शब्द का वाच्य वस्तु के साथ न तादात्म्यलक्षण प्रतिबंध है और न तदुत्पत्ति लक्षण प्रतिबंध । ९६ शब्द के साथ अर्थ का कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है, इसलिए शब्द द्वारा अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता। धर्मकीर्ति कहते हैं कि शब्दों का बाह्य अर्थ के साथ अविनाभाव नहीं है। इसलिए शब्द से अर्थ का ज्ञान नहीं होता । शब्द तो वक्ता के अभिप्राय के सूचक होते हैं ।१९७ वक्ता के अभिप्राय का अविसंवादी ज्ञान होने से शब्द का प्रामाण्य स्वीकार किया जाता है,अन्यथा शब्द के साथ अर्थ का कोई निबन्धन नहीं है। १९८ वक्ता के अभिप्राय अर्थात् विवक्षा का शब्दों के द्वारा अनुमान किया जाता है । शान्तरक्षित ने इसका स्पष्ट प्रतिपादन करते हुए कहा है कि समस्त वचनों से विवक्षा का ही अनुमान किया जाता है । १९९ प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ से शब्द-हेतु के द्वारा विवक्षा ही निश्चित की जाती है। शब्द से विवक्षा का अन्वय-व्यतिरेक रहता है । कमलशील कहते हैं कि शब्दों से यदि किसी श्रोता को वक्ता की विवक्षा का ज्ञान नहीं होता है तो इसमें शब्द-लिङ्ग का दोष नहीं है, यह तो प्रमाता पर निर्भर करता है कि वह शब्द-लिङ्ग द्वारा वक्ता की विवक्षा का अनुमान करता है या नहीं।२०० शान्तरक्षित ने शब्द को कार्य हेतु तथा विवक्षा को साध्य बनाकर उसमें त्रैरूप्य हेतुलक्षण को १९४. न प्रमाणान्तरं शब्दमनुमानात् तथा हि सः।-दिङ्नाग, उद्धत तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, पृ० ५३९ १९५. शब्दादीनामप्यनुमानेऽन्तर्मावः समानविधित्वात् ।-प्रशस्तपाद भाष्य, अनुमानप्रकरण, पृ० १७३ १९६. न हि वाच्यैर्वस्तुभिः सह कश्चित् तादात्म्यलक्षणः तदुत्पत्तिलक्षणो वा प्रतिबंधो वचसामस्ति ।-तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, १५१२, पृ०५३८ १९७. नान्तरीयकता भावाच्छब्दानां वस्तभिस्सह। नार्थसिद्धिस्ततस्ते हि वक्त्रभिप्रायसूचकाः।-प्रमाणवार्तिक, ३.२१३-२१४ १९८. शाब्देऽप्यभिप्रायनिवेदनात् । प्रामाण्यं तत्र शब्दस्य नार्थतत्त्वनिबन्धनम् ।- प्रमाणवार्तिक, १.३-४ १९९. वचोप्यो निखिलेभ्योऽपि विवक्षेषानुमीयते। प्रत्यक्षानपलम्माभ्यां तदहेतःसा हिनिधिता। -तत्त्वसङ्ग्रह १५१४ २००. ये पुनस्तासु लिङ्गभूतासु गीषु विशेषं नावधारयन्ति, तेषामयं दोषः न तु लिङ्गस्य।-तत्त्वसङ्ग्रहपब्जिका,१५१७, पृ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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