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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
एवं अनुमान से भिन्न (तर्क) प्रमाण मानना चाहिए। यदि वह अप्रमाण है तो उससे व्याप्तिग्रहण मानना षण्ढ से संतान की कामना करने जैसा है। इससे 'अनुपलम्भात् कारणव्यापकानुपलम्भाच्च कार्यकारणव्याप्यव्यापकभावावगमः' बौद्ध पंक्ति का खण्डन हो जाता है । १९०
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हेमचन्द्रसूरि ने वैशेषिकों एवं नैयायिकों (योगों) के द्वारा स्वीकृत व्याप्तिग्रहणोपाय का भी निर्देश कर उनका निरसन किया है। हेमचन्द्र ने कहा है कि वैशेषिक प्रत्यक्षप्रमाण के फलरूप ऊहापोह विकल्प ज्ञान से व्याप्ति का ज्ञान मानते हैं १९१ किन्तु प्रत्यक्ष का फल प्रत्यक्ष एवं अनुमान ही हो तो उनसे सार्वत्रिक एवं त्रैकालिक व्याप्ति नहीं बन सकती । यदि उसका फल इन दोनों से भिन्न है तो तृतीय प्रमाण (तर्क) मानना पड़ेगा
उन्होंने उल्लेख किया है कि न्याय दार्शनिक (योग) तर्कसहित प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण मानते हैं,१९२ किन्तु तर्कसहकृत प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण मानने की अपेक्षा तर्क से ही व्याप्ति का ग्रहण मानने में तर्क का यश सुरक्षित रहता है। यदि तर्क प्रमाण नहीं है, इसलिए प्रत्यक्ष से व्याप्ति का प्रहण माना गया है तो हेमचन्द्र कहते हैं तर्क प्रमाण क्यों नहीं है ? उसमें भी अन्य प्रमाणों की भांति अव्यभिचार है, व्याप्ति उसका विषय है, अत: वह निर्विषय भी नहीं है । इसलिए प्रमाणान्तर से अगृहीत व्याप्ति का ग्राहक होने से तर्क को प्रमाण मानना चाहिए।'
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समीक्षण
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नव्यन्यायदार्शनिकों ने व्याप्ति का ग्रहण सामान्यलक्षण नामक अलौकिक सन्निकर्ष से माना है। प्राचीन नैयायिक मानस-प्रत्यक्ष, इन्द्रियार्थसन्निकर्ष अथवा तर्कसहकृत प्रत्यक्ष से व्याप्तिज्ञान मानते रहे हैं । बौद्धों ने प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ के पश्चक से व्याप्तिग्रहण स्वीकार किया है, किन्तु जैन दार्शनिक व्याप्ति ग्राहक के रूप में तर्क को स्वीकार करते हैं। स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान की भांति तर्क
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उनके मत में प्रमाण है। तर्क प्रमाण का फल अनुमान है। 'तर्क' द्वारा व्याप्तिज्ञान स्वीकार करने से दृष्ट एवं अदृष्ट समस्त साध्य व साधन में व्याप्ति का ग्रहण किया जा सकता है जो भूयोदर्शन या प्रत्यक्षानुपलम्भ से संभव नहीं है। इसलिए "तर्क” द्वारा व्याप्तिज्ञान स्वीकार करना जैन दार्शनिक चिन्तन की गहनता को स्पष्ट करता है, तथा इसका पृथक् प्रमाण के रूप में स्थापन भारतीय न्याय को उनकी अनूठी देन है ।
आगम-प्रमाण
भारतीय दर्शन में न्याय, मीमांसा, वेदान्त, सांख्य एवं जैन सम्प्रदाय शब्द अथवा आगम को पृथक् प्रमाण मानते हैं । चार्वाकमत में अनुमान की भांति आगम का भी प्रामाण्य इष्ट नहीं है। बौद्ध
१९०. प्रमाणमीमांसा, १.२.५ की वृत्ति, पृ० ३७
१९१. वैशेषिकास्तु प्रत्यक्षफलेनोहापोहविकल्पज्ञानेन व्याप्तिप्रतिपत्तिरित्याहुः । - प्रमाणमीमांसा, पृ. ३७ १९२. यौगास्तु तर्कसहितात् प्रत्यक्षादेव व्याप्तिग्रह इत्याहुः । - प्रमाणमीमांसा, पृ. ३७
१९३. प्रमाणमीमांसा, पृ० ३७
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