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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार अनुमान से सिद्ध होता है तो अनवस्था दोष आता है तथा उसी अनुमान से अविनाभाव की सिद्धि मानने पर अन्योन्याश्रय दोष की आपत्ति आती है।८६ अतः अविनाभाव अर्थात् व्याप्ति की सिद्धि में न प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ है और न अनुमान प्रमाण । मात्र तर्कप्रमाण ही व्याप्ति की सिद्धि करने में समर्थ है।१८७ अनुपलब्धि हेतु के व्याप्तिग्रहण का खण्डन स्वभाव हेतु के व्याप्ति-ग्रहण खण्डन से ही हो जाता है ,क्योंकि बौद्धों के अनुसार अनुपलब्धि हेतु का अन्तर्भाव स्वभाव हेतु में हो जाता है।। ... स्याद्वादरलाकर का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि वादिदेवसूरि ने भी तर्क को अकलङ्क, विद्यानन्द,एवं प्रभाचन्द्र की भांति अविसंवादक,कथञ्चित् अगृहीतग्राही,एवं समारोप का व्यवच्छेदक स्वीकार किया है ।१८८ तथा उसके विकल्पमात्रत्व का खण्डन कर उसे साकल्य से व्याप्तिज्ञान का ग्राहक स्वीकार कर पृथक् प्रमाणरूप में प्रतिष्ठित किया है। हेमचन्द्र सूरि का मत हेमचन्द्रसूरि ने भी पूर्ववर्ती जैनाचार्यों के अनुसार बौद्धमत का खण्डन कर तर्क का प्रामाण्य सिद्ध किया है। व्याप्तिप्रहण के लिए उन्होंने प्रत्यक्ष एवं अनुमान को असमर्थ प्रतिपादित किया है । उनका कथन है कि 'जितना भी कोई देशान्तर एवं कालान्तर में धूम है वह अग्नि का कार्य है। अन्य अर्थ का नहीं' इतना व्यापार प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं कर सकता,क्योंकि वह बौद्धमत में सन्निहित विषय के बल से उत्पन्न होता है तथा उसमें (निर्विकल्पक होने से) विचार करने की क्षमता भी नहीं होती। अनुमान से भी व्याप्ति का ग्रहण संभव नहीं है, क्योंकि व्याप्ति के ग्रहण काल में प्रमाता योगी की भांति हो जाता है, किन्तु अनुमान में ऐसा सामर्थ्य नहीं है । कदाचित् इतना सामर्थ्य अनुमान में स्वीकार कर लिया जाय तो प्रकृत अनुमान व्याप्तिप्राहक होता है या अन्य अनुमान ? प्रकृत अनुमान से व्याप्तिग्रहण मानने पर तो इतरेतराश्रय दोष आएगा, क्योंकि व्याप्तिग्रहण से अनुमान होगा तथा अनुमान के होने पर व्याप्तिग्रहण होगा । यदि अनुमानान्तर से व्याप्तिग्रहण किया जाता है तो अनवस्था दोष आता है.क्योंकि वह भी व्याप्ति को ग्रहण करके ही प्रवृत्त होगा एवं अन्य अनुमान से उसकी व्याप्ति का ग्रहण माना जाय तो सहस्रयुगों में भी व्याप्ति का ग्रहण होना संभव नहीं है ।२८९ इसी प्रकार प्रत्यक्ष पृष्ठभावी विकल्प से भी वे व्याप्ति का ग्रहण नहीं मानते,क्योंकि बौद्धमत में वह विकल्प प्रत्यक्ष द्वारा गृहीत विषय का ही ग्रहण करता है । यदि विकल्प का विषय प्रत्यक्ष से भिन्न है तो हेमचन्द्र कहते हैं वह विकल्प प्रमाण है या अप्रमाण? यदि विकल्प प्रमाण है तो उसे प्रत्यक्ष १८६.स्याद्वादरत्नाकर, पृ०५१५।। १८७. तत्प्रत्यक्षं नाविनामावसिद्धौ धत्ते प्रौढिं लैङ्गिकी नापि बुद्धिः । एकस्तर्कस्तत्र सामर्थ्यमुद्रां निष्पत्यूहां हन्त तस्माद्विभर्ति 11-स्याद्वादरत्नाकर, श्लो. ४८२, पृ०५१५ १८८.स्यादादरत्नाकर, पृ०५१५-१६ १८९. प्रमाणमीमांसा, १.२.५ की वृत्ति, पृ. ३६-३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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