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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
(५) उसके पश्चात् धूम का भी अनुपलम्भ।८४ इस प्रकार प्रत्यक्षानुपलम्भपञ्चक से एक व्यक्ति में कार्यकारणभाव का ज्ञान होता है कि अग्नि का कार्य धूम है । जो जिसका कार्य होता है वह उसके साथ नियत होता है । यदि कार्य,कारण के साथ नियत नहीं हो तो कारण से निरपेक्ष होने के कारण वह या तो सदैव रहेगा या कभी नहीं रहेगा।
स्वभाव हेत में तो अविनाभाव की प्रतीति विपक्ष में बाधक अनमान से होती है । यथा “जो सत है वह क्षणिक है" इस अनुमान के विपक्ष में बाधक क्रम एवं यौगपद्य हैं । जो अर्थक्रियाकारी होता है वह सत्त्व होता है ,यह सत् का लक्षण है । अक्षणिक में अर्थक्रिया क्रम एवं युगपद् दोनों प्रकार से नहीं हो सकती। अतः क्षणिक अर्थ में ही सत्त्व घटित होता है। ____ अनुपलब्धि हेतु का स्वभाव हेतु में ही अन्तर्भाव होने से उसके पृथक् अविनाभाव-ग्राहक प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। वादिदेवसूरि द्वारा उत्तर-कार्यहेतु में व्याप्ति का ज्ञान प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ पंचक से मानना उपयुक्त नहीं है,क्योंकि उपलम्भ एवं अनुपलम्भ दोनों प्रकार के स्वभाव वाले प्रत्यक्ष का विषय सन्निहित मात्र अर्थ होता है, अतः उससे अन्य देशादि में स्थित पदार्थों का ज्ञान नहीं होता। दूसरी बात यह है कि (बौद्धमत में) प्रत्यक्ष निर्विकल्प होने से अविचारक होता है अत: वह "जितना भी कोई धूम,है चाहे वह देशान्तर में हो या कालान्तर में अग्नि से उत्पन्न होता है, अन्य किसी से नहीं” इस प्रकार का व्यापार करने में असमर्थ होता है, अतः उससे व्याप्ति का ज्ञान नहीं हो सकता है।
यदि प्रत्यक्ष पुरःसन्निहित अर्थों में व्याप्ति का ज्ञान करके सर्वोपसंहार से अन्यत्र भी व्याप्ति का ज्ञान कराता है,ऐसा मानते हैं तो भी असमीचीन है,क्योंकि अपने अविषयभूत अर्थों में प्रत्यक्ष का सर्वोपसंहार नहीं हो सकता। प्रत्यक्ष का पृष्ठभावी विकल्प भी प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत अर्थ का ही अध्यवसाय करता है अत: उसके द्वारा भी सर्वोपसंहार से व्याप्ति ग्रहण नहीं की जा सकती और साध्य के साथ अनिश्चित प्रतिबन्ध वाला हेतु देशान्तर में साध्य का ज्ञान नहीं करा सकता है ।१८५
वादिदेवसूरि ने भी प्रभाचन्द्र आदि की भांति तर्क को प्रत्यक्ष से अधिकयाही किंवा अगृहीतग्राही माना है । वे प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ से कार्यहेतु के व्याप्तिज्ञान का खण्डन करते हुए प्रतिपादित करते है कि तर्क द्वारा ही कार्यहेतु में व्याप्तिग्रहण संभव है ,अन्यथा नहीं।
स्वभाव हेतु में अविनाभाव की प्रतीति विपक्ष में बाधक अनुमान से होती है, यह बौद्ध मन्तव्य भी वादिदेवसूरि के अनुसार खण्डित होता है,क्योंकि विपक्ष में बाधक अनुमान भी प्रसिद्ध अविनाभाव के होने पर ही अपने साध्य की सिद्धि कर सकता है,उसके अभाव में नहीं । उसका अविनाभाव अन्य १८४. धूमाधीर्वनिविज्ञानं धूमज्ञानमधीस्तयोः।।
प्रत्यक्षानुपलम्भाध्यामिति पंचभिरन्वयः ।। उद्धृत, स्याद्वादरत्नाकर, पृ. ५१४ १८५.स्यादादरत्नाकर,१०५१४
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