________________
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
१७८
है, क्योंकि धूम अग्नि के सद्भाव में ही पाया जाता है, अग्नि के अभाव में नहीं । स्वभावहेतु में भी इसी प्रकार भाव मात्र का अनुबन्ध करने वाले स्वभाव में अविनाभाव होता है। अनुबन्ध के कारण स्वभाव का अभाव होने पर स्वभाववान् पदार्थ का भी अभाव हो जाता है। प्रभाचन्द्र : प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ज्ञान होने पर केवल उस प्रत्यक्ष काल में उपलब्ध व्यापक के साथ व्याप्य की व्याप्ति सिद्ध हो सकती है, उसके सदृश अन्य धूमाग्नि आदि व्याप्य व्यापक की व्याप्ति सिद्ध नहीं हो सकती । यदि अन्य व्याप्य के साथ भी व्याप्ति का ग्रहण होना स्वीकार किया जाय तो उस व्याप्ति ग्राहक विकल्पज्ञान को अगृहीतग्राही भी मानना चाहिए। " अनुमान से भी व्याप्तिज्ञान शक्य नहीं है, क्योंकि उससे अनवस्था दोष आता है तथा उसी अनुमान से व्याप्तिज्ञान मानने पर अन्योन्याश्रय दोष आता है।
१७९
३२६
तर्क विसंवादक नहीं - तर्क विप्रकृष्ट अर्थों को विषय करता है इसलिए उसकी संवादकता निश्चित नहीं है, प्रभाचन्द्र के अनुसार ऐसी बौद्ध आशंका भी उचित नहीं है, क्योंकि तर्क की संवादकता में सन्देह करने पर निस्संदेह अनुमान का उदय नहीं हो सकता। तर्क के संवादक होने पर ही अनुमान प्रमाण संवादक हो सकता है । साध्य एवं साधन के अविनाभाव का निश्चय करने में तर्क की अविसंवादकता प्रसिद्ध है । १८०
प्रमाण-विषय का परिशोधक होने से तर्क अप्रमाण नहीं- प्रमाण के विषय का परिशोधक होने से तर्क प्रमाण नहीं है, नैयायिकों का ऐसा मानना भी अयुक्त है, क्योंकि प्रमाणविषय का परिशोधक अप्रमाण नहीं होता है । जो प्रमाण नहीं होता वह प्रमाण-विषय का परिशोधक नहीं होता, यथा मिथ्याज्ञान एवं प्रमेय पदार्थ । जो प्रमाणविष्य का परिशोधक होता है वह प्रमाण होता है। तर्क भी प्रमाणविषय का परिशोधक होने से प्रमाण है । १८१.
तर्क के प्रामाण्य हेतु अन्य तर्क- प्रभाचन्द्र ने तर्क को प्रमाण सिद्ध करने के लिए अन्य हेतु भी दिये है, यथा वह अन्य प्रमाणों का अनुग्राहक होने से प्रमाण है। प्रभाचन्द्र का कथन है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ज्ञात एक देश के साध्यसाधन सम्बन्ध का दृढतर निश्चय तर्क प्रमाण द्वारा ही होता है। अनुमान के समान यह सम्बन्ध अन्य ज्ञान से उत्पन्न नहीं होता, अतः इसके लिए अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती, जिससे अनवस्था दोष आ सके । प्रत्यक्ष की भांति तर्क प्रमाण योग्यता विशेष से ही प्रतिनियत अर्थ का व्यवस्थापक होता है । १८२
१७८. तुलनीय-स्वभावेऽप्यविनाभावो भावमात्रानुबन्धिनि ।
तदभावे स्वयं भावस्याभावः स्यादभेदतः । प्रमाणवार्तिक, ३.३९, उद्धृत, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, भाग-२, पू. ३०९
१७९. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२ पृ. ३१० १८०. प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, भाग-२, पृ. ३१४ १८१. प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, भाग-२, पृ. ३१५ १८२. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग २, पृ. ३१५-१६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org