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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार ३२५ प्रभाचन्द्र द्वारा स्थापन तर्क अप्रमाण क्यों ? (१) गृहीत ग्राही होने से (२) विसंवादक होने से अथवा (३) प्रमाण के विषय का परिशोधक होने से । १७३ इन तीन प्रश्नों का सटीक उत्तर देकर प्रथाचन्द्र ने तर्क के प्रामाण्य का व्यवस्थापन किया है । यद्यपि इनमें गृहीतग्राहित्व एवं विसंवादकत्व का खण्डन अकलङ्क तथा विद्यानन्द ने भी किया है,तथापि प्रभाचन्द्र इनका विस्तृत एवं विशदरूपेण निरसन करते हैं। तर्क व्याप्ति का ग्राहक होने से गृहीतग्राही नहीं -प्रभाचन्द्र प्रतिपादित करते हैं कि तर्क गृहीतग्राही नहीं है। उसके विषय का ग्रहण न प्रत्यक्ष प्रमाण से शक्य है और न अनुमान प्रमाण से । प्रत्यक्ष में भी न इन्द्रिय प्रत्यक्ष से तर्क का ग्रहण होता है,न मानस प्रत्यक्ष से और न योगिप्रत्यक्ष से ।१७४ इन्द्रियप्रत्यक्ष से व्याप्ति का ज्ञान संभव नहीं,क्योंकि यह नियत देशकाल आदि में जिस अर्थ से सम्बद्ध होता है, उसी का प्रकाशक होता है,व्याप्ति का प्रकाशक नहीं होता । व्याप्ति तो सकल देश एवं काल में व्याप्त अर्थों में सर्वोपसंहार से व्याप्त रहती है । मानसप्रत्यक्ष से भी व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता,क्योंकि बाह्य इन्द्रियों से निरपेक्ष मन बाह्यार्थ में प्रवृत्त नहीं होता है । १७५ व्याप्ति बाह्य पदार्थों में होती है। योगिप्रत्यक्ष भी अविचारक होने से व्याप्तिज्ञान नहीं करा सकता। यदि योगिप्रत्यक्ष से योगी के व्याप्तिज्ञान का होना स्वीकार कर भी लिया जाय तो उसके लिए अनुमान करने का कोई औचित्य नहीं दिखाई देता,क्योंकि योगी को समस्त साध्य एवं साधनों का प्रत्यक्ष से स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। जो पदार्थ प्रत्यक्ष से स्पष्ट रूपेण ज्ञात हो जाता है उसे अनुमान से जानना निष्फल है । यदि दूसरों को ज्ञान कराने के लिए योगी अनुमान करता है तो वह व्याप्ति का ग्रहण किए बिना दूसरों को कैसे समझा सकता है ? व्याप्ति का ग्रहण वह स्वसंवेदन, इन्द्रिय,मानस प्रत्यक्ष से तो कर नहीं सकता ,क्योंकि व्याप्तिज्ञान इनका विषय नहीं है तथा योगि-प्रत्यक्ष से व्याप्तिग्रहण मानने पर अनुमान निरर्थक हो जाता है । व्याप्तिग्रहण किये बिना परार्थानुमान करना शक्य नहीं है ।१७६ प्रत्यक्ष पृष्ठभावी विकल्प के द्वारा भी व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता,क्योंकि वह भी सन्निहित विषयमात्र का ही अध्यवसाय करता है अतः विप्रकृष्ट एवं अतीत के विषयों का उपसंहार करके व्याप्तिज्ञान नहीं कर सकता। बौद्ध : धूम, अग्नि का कार्य है यह प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ द्वारा कार्यधर्म की अनुवृत्ति से निश्चित होता है। यदि धूम कार्य अग्नि कारण के अभाव में भी देखा जाय तो उसे अग्नि का हेतु नहीं कहा जा सकता ।१७७ धूमहेतु से हम अग्नि साध्य का ज्ञान करते हैं अथवा दोनों की व्याप्ति निश्चित करते १७३. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ० ३०७ १७४. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२, पृ० ४२९ १७५. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ४३१ १७६. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ० ३११-१२ एवं न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ४३२-३३ १७७. तुलनीय-कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः। सम्भवस्तदभावेऽपि हेतुमत्तां विलंघयेत् ।।- प्रमाणवार्तिक, ३.३४, उद्धृत, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ. ३०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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