SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा करना आवश्यक है । तर्क की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में विद्यानन्द कहते हैं कि प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्ष की भांति तर्क भी स्वयोग्यता से ही अपने विषय में प्रवृत्त होता है ।१६५ बौद्धमत में गृहीतग्राही होने से यदि तर्क अप्रमाण है तो विद्यानन्द कहते है कि गृहीतग्राही होने से तर्क को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह कथञ्चित् अपूर्वार्थग्राही है। प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ से तो साध्य एवं साधन के सम्बन्ध का देशतः ज्ञान हो सकता है ,जबकि तर्क के द्वारा उसका समस्त रूपेण ज्ञान होता है अत: अपूर्वार्थग्राही होने से तर्क प्रमाण है ।१६६ विद्यानन्द को तर्क के कथञ्चित् गृहीतग्राही होने पर भी उसको प्रमाण मानने में कोई आपत्ति नहीं है ।१६७ संवादक होने से भी तर्क ज्ञान प्रमाण है । तर्क के द्वारा ज्ञात साध्य एवं साधन का व्याप्तिसम्बन्ध अर्थक्रिया में अविसंवादी होता है१६८ यदि तर्कज्ञान अविसंवादी न हो तो अनुमान-प्रमाण भी अविसंवादी नहीं हो सकता,क्योंकि अनुमान प्रमाण तर्काश्रित होता है।६९ तर्क के संवादकत्व में संदेह होना उचित नहीं,क्योंकि उसके अभाव में अनुमिति ज्ञान निःशंकित नहीं हो सकता।१७० समारोप का व्यवच्छेदक होने से भी तर्क का अनुमान-प्रमाण की भांति प्रामाण्य है। साध्य एवं साधन के सम्बन्ध में किसी भी प्रमाता को कभी समारोप हो तो उसका तर्क के द्वारा व्यवच्छेद हो जाता है।१७१ तर्क के प्रामाण्य में अन्य कोई बाधक प्रमाण भी नहीं है । प्रत्यक्ष तर्क में बाधक नहीं है क्योंकि वह उसके विषय में प्रवृत्त नहीं होता है, अनुमान के समान । जहां प्रत्यक्ष या अनुमानप्रमाण तर्क का बाधक होता है वह तर्क नहीं तर्काभास होता है, अत: उसका प्रामाण्य इष्ट नहीं है ।१७२ इस प्रकार विद्यानन्द तर्क को साकल्य से व्याप्तिज्ञान का ग्राहक, कथञ्चित् अगृहीतग्राही, अविसंवादक, एवं समारोप का व्यवच्छेदक होने से प्रमाण मानते हैं तथा उसके प्रामाण्य में बाधक प्रमाण का अभाव भी स्वीकार करते हैं। १६५. अष्टसहस्री, पृ. २८० १६६. गृहीतग्रहणात्तकोऽप्रमाणमिति चेत्र वै। तस्यापूर्वार्थवेदित्वादुपयोगविशेषतः प्रत्यक्षानुपलम्माभ्यां सम्बन्धो देशतो गतः । साध्यसाधनयोस्तांत्सामस्त्येनेति चिन्तितम् ॥-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.९३-९४ १६७. प्रामाण्यं च गृहीतार्थग्राहित्वेऽपि कथञ्चन ||-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.९५ १६८. प्रमाणपरीक्षा, पृ. ४५ । १६९. तत्तकस्याविसंवादोनुमा संवादनादपि । विसंवादे हि तर्कस्य जातु तत्रोपपद्यते ॥-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.९० १७०. तर्कसंवादसंदेहे निःशंकानुमितिः क्व ते ।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक , १.१३.९१ १७१. समारोपव्यवच्छेदात्स्वार्थे तर्कस्य मानता। लैंगिकज्ञानवत्रैव विरोधमनुधावति ।। प्रवृत्तश्च समारोपः साध्यसाधनयोः क्वचित् । सम्बन्धे तर्कतो मातुर्व्यवच्छेद्येत कस्यचित् ।।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.९८-९९ १७२. न हि तर्कस्य प्रत्यक्षं बाधकं, तद्विषये तस्याऽप्रवृत्तेः अनुमानवत् । यस्य तु तदाधकं स तर्कामासो न प्रमाणमितीष्टं शिष्टैः ।- प्रमाणपरीक्षा, पृ० ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy