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स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार
अकलङ्क की युक्तियां
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भट्ट अकलङ्क प्रथम जैन दार्शनिक हैं जिन्होंने तर्क को पृथक् प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया । वे तर्क के पृथक् प्रामाण्य का स्थापन करते हुए अनेक युक्तियां प्रस्तुत करते हैं। अकलङ्क कहते हैं कि तर्क के द्वारा साध्य एवं साधन की व्याप्ति का साकल्य से ज्ञान किया जाता है। उसके द्वारा गृहीत विषय किसी अन्य प्रमाण से ग्रहण नहीं किया जाता है । अतः तर्क को पृथक् प्रमाण मानना आवश्यक है । १६२ दूसरी बात यह है कि अनुमान प्रमाण तर्क की अपेक्षा रखता है, क्योंकि तर्क से ही अविनाभाव सम्बन्ध का साकल्य से निर्धारण होता है; तर्क के अभाव में अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता, इसलिए वस्तु बल से तर्क भी प्रमाण है । १६३ बौद्धों के द्वारा अनुमान किया जाता है कि “भूत, भव्य एवं वर्तमान समस्त पदार्थ क्षणिक हैं, सत् होने से", किन्तु कालों के समस्त पदार्थों में क्षणिकता की व्याप्ति में न प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ है और न अनुमान । कोई भी पुरुष सकल पदार्थों में कहीं भी कभी भी प्रत्यक्ष से व्याप्तिज्ञान नहीं कर सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष से प्रथम तो समस्त पदार्थों का सन्निधि के अभाव में ज्ञान नहीं हो सकता । यदि समस्त पदार्थों का प्रत्यक्ष हो भी जाय तो बौद्धमत में उसके निर्विकल्पक अथवा अविचारक होने के कारण उससे व्याप्तिज्ञान संभव नहीं है। अनुमान प्रमाण से भी व्याप्तिज्ञान शक्य नहीं है, क्योंकि लिङ्ग -लिङ्गी का व्याप्ति ज्ञान हुए बिना अनुमान प्रवृत्त नहीं हो सकता और अनुमान के बिना व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता। इस प्रकार अनुमान से व्याप्तिज्ञान मानने पर अनवस्था दोष आता है। अतः व्याप्तिज्ञान के लिए प्रत्यक्ष एवं अनुमान से भिन्न 'तर्क' का प्रामाण्य अंगीकार करना चाहिए । १६
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विद्यानन्द के तर्क
विद्यानन्द ने अकलङ्क की युक्ति का अधिक प्रबल शब्दों में उपपादन करते हुए कहा है कि सत्त्व एवं क्षणिकता तथा धूम और अग्नि का साकल्य से व्याप्तिज्ञान करने में प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ नहीं होता है, क्योंकि वह सन्निहित अर्थों को ही विषय करता है। इन्द्रिय, मानस, स्वसंवेदन एवं योगी ये चारों प्रकार के (बौद्ध सम्मत प्रत्यक्ष निर्विकल्पक होने से साध्य एवं साधन के सम्बन्ध की परीक्षा नहीं कर सकते। अनुमान प्रमाण द्वारा भी साकल्य से व्याप्तिज्ञान करना समीचीन नहीं, अन्यथा अनवस्था दोष आता है। इसलिए प्रत्यक्ष एवं अनुमान इन दोनों से भिन्न तर्क नामक व्यवस्थापक प्रमाण को स्वीकृत
१६२. व्याप्तिसाध्येन हेतोः स्फुटयति न विना चिन्तयैकत्र दृष्टिः ।
साकल्येनैष तर्कोऽधिगतविषयः तत्कृतार्थैकदेशे ॥- लघीयस्त्रय, ४९
१६३. सत्यप्यन्वयविज्ञाने स तर्कपरिनिष्ठितः ।
अविनाभावसम्बन्धः साकल्येनावधार्यते ॥ सहदृष्टैश्च धर्मैस्तत्र विना तस्य संभवः । इति तर्कमपेक्षेत नियमेनैव लैङ्गिकम् ॥
तस्माद् वस्तुबलादेव प्रमाणं मतिपूर्वकम् ॥ - न्यायविनिश्चय, ३२९-३३१ १६४. भूताः भव्याः सर्वे सन्तो भावाः क्षणक्षयाः |
इति व्याप्तौ प्रमाणं ते न प्रत्यक्षं न लैङ्गिकम् ॥ सिद्धिविनिश्चय, ३.८
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