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स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह - विचार
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वैशेषिक दर्शन में तर्क को न्यायदर्शन की भांति कोई पदार्थ नहीं माना गया तथा वैशेषिकसूत्र एवं प्रशस्तपादभाष्य में तर्क की कोई चर्चा भी प्राप्त नहीं होती है । व्योमशिव की व्योमवती में अवश्य तर्क का निरूपण है । उन्होंने उसे निश्चयरूप माना है । व्योमशिव के अनुसार संशय के पश्चात् तुरगविहार भूमि में स्थाणुपक्ष का प्रतिषेध होने पर यह पुरुष होना चाहिए इस प्रकार की जो संभावना प्रतीति रूप तर्क है वह तद्वान् में तत्प्रकारक होने के कारण निश्चयरूप ही है। डॉ. गणेशीलाल सुथार ने अपने एक शोध पत्र में प्रतिपादित किया है कि व्योमशिव ने अनिष्ट प्रसंग तर्क की चर्चा नहीं की है, इसका अर्थ है कि व्योमशिव के काल तक न्यायदर्शन में अनिष्ट प्रसंग के रूप में तर्क की चर्चा प्रवृत्त नहीं हुई थी । १५१ उदयनाचार्य ने अनिष्ट प्रसंग स्वरूप तर्क के आत्माश्रय, इतरेतराश्रय, चक्रक, अनवस्था एवं प्रमाणवादितार्थ प्रसंग ये पाँच प्रकार माने हैं १५२. तथा उन्होंने प्रमाणों के अंगभूत तर्क की प्रमाण के फल से ही फलवत्ता स्वीकार की है। उन्होंने भासर्वज्ञ पर आक्षेप करते हुए कहा है कि तार्किक का अभिमान रखते हुए भी तर्क की गणना नहीं करना अश्वारूढ व्यक्ति के द्वारा अश्व के विस्मरण के समान है । १५३
सांख्यदर्शन में ईश्वरकृष्ण ने अष्ट सिद्धियों में ऊह की भी गणना की है । १५४ सांख्यतत्त्वकौमुदीकार ने उस ऊह के लिए तर्क शब्द का प्रयोग किया है तथा उसे आगम की अविरोधी युक्ति से आगमार्थ (श्रुत्यर्थ) का परीक्षण करना कहा है। १५५ वाचस्पतिमिश्र के इस कथन से तर्क का प्रामाण्य सिद्ध होता है, किन्तु सांख्याचार्यों ने इसका किसी भी स्वीकृत प्रमाण में समावेश नहीं किया है । संभवत: वह अनुमान में ही समाविष्ट हो सकता है।
मीमांसकों ने युक्ति से प्रयोग निरूपण को तर्क कहा है। १५६ तर्क को प्रमाण मानकर उसका अन्तर्भाव उन्होंने अनुमान या शब्द प्रमाण में किया है, ऐसा जयन्तभट्ट की न्यायमञ्जरी में मीमांसकों की आलोचना से ज्ञात होता है। १५७ मनुस्मृति में 'यस्तर्केणानुसन्धत्ते' वाक्य में जो तर्क शब्द प्रयुक्त हुआ है वह भी अनुमान प्रमाण का ही बोधक है।
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अद्वैतवेदान्त में तर्क शब्द अनुमान अथवा अर्थापत्ति प्रमाण के लिए प्रयुक्त हुआ है। कठोपनिषद् में ‘नैषा तर्केण मतिरापनेया' वाक्य में तर्क शब्द का प्रयोग एक प्रमाण का ही बोध कराता
१५०. व्योमवती, पृ. ५३३
१५१. नैयायिकवैशेषिकजैनतार्किकाणां तर्फे विप्रतिपत्तिः, Proceedings AIOC, 31st Session, Jaipur 1982, p. 584
१५२. न्यायवार्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि, १.१.४०
१५३. किरणावली, पृ. १७२
१५४. ऊहः शब्दोऽध्ययनं । -- सांख्यकारिका, ५१
१५५. ऊहः तर्कः आगमाविरोधिन्यायेनागमार्थपरीक्षणम् । परीक्षणञ्च संशयपूर्वपक्षनिराकरणेनोत्तरपक्षव्यवस्थापनम् । - सांख्यतत्त्वकौमुदी, ५१
१५६. जैमिनीयास्तु बुवते युक्त्या प्रयोगनिरूपणमूह इति । न्यायमञ्जरी, द्वितीय भाग, पृ. १४६
१५७. द्रष्टव्य, न्यायमंजरी, द्वितीय भाग पृ. १४७-१४८
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