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________________ ३२० वैदिक दर्शन - प्रस्थानों में तर्क का स्वरूप न्यायदर्शन में तर्क को षोडश पदार्थों में स्थान दिया गया है, उसे वाद एवं निर्णय के लिए उपयोगी भी माना गया है । १४२ किन्तु उसे प्रमाण रूप स्वीकार नहीं किया गया। गौतम के अनुसार अज्ञात अर्थ का वास्तविक ज्ञान करने के लिए कारणों की उपपत्ति से जो ऊह किया जाता है वह तर्क है । १४३ वात्स्यायन कहते हैं कि तर्क में तत्त्व का अवधारण नहीं होता है, इसलिए वह तत्त्वज्ञान नहीं होता, तत्त्वज्ञान के लिए वह उपादेय होता है । १४४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा एकदेशीय नैयायिकों ने तर्क, हेतु, अनुमान एवं अन्वीक्षा को पर्यायार्थक माना है, किन्तु उद्योतकर ने इसका खण्डन किया है। १४५ नैयायिकों ने तर्क को अनुमान, संशय एवं निर्णय से भिन्न माना है । १४६ सम्पूर्ण न्यायदर्शन का अवलोकन करने पर उसमें तर्क के दो स्वरूप उभर कर आते है । एक प्राचीन स्वरूप है जिसके अनुसार तर्क को संभावनात्मक प्रत्यय के रूप में अंगीकार किया गया है १४७ तथा परवर्ती ग्रन्थों में उसे अनिष्टप्रसंग स्वरूप निरूपित किया गया है। १४८ नव्य नैयायिक आचार्य गङ्गेश ने भी उसे अनिष्ट प्रसंग स्वरूप ही माना है । वरदराज ने तार्किकरक्षा में अनिष्ट प्रसंग का तर्क लक्षण के रूप में निरूपण कर उसके दो भेद किए हैं- प्रामाणिक का परित्याग और अप्रामाणिक का स्वीकार । १४९ I न्यायदर्शन में निरूपित तर्क से जैन दार्शनिकों का तर्क भिन्न है क्योंकि न्यायदर्शन में वह अवधारणात्मक या तत्त्वज्ञानात्मक नहीं होता, जबकि जैनदर्शन में तर्क को व्याप्ति का अवधारणात्मक ज्ञान माना गया है। जैनदार्शनिकों का मंतव्य है, कि बिना तर्क के व्याप्तिज्ञान नहीं हो सकता और व्याप्ति ज्ञान के बिना अनुमान नहीं हो सकता । तर्क के द्वारा त्रैकालिक व्याप्ति का ग्रहण होता है । प्रत्यक्ष, भूयोदर्शन आदि के द्वारा दृष्ट पदार्थों में ही साध्य साधन भाव का ग्रहण किया जा सकता है, अदृष्ट अर्थों में नहीं जबकि तर्क दृष्ट एवं अदृष्ट पदार्थों के आधार पर सर्वत्र व्याप्ति का ग्रहण कर सकता है । १४२. प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः --- वादः । - न्यायसूत्र, १.२१ १४३. अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः । - न्यायसूत्र १.४० १४४. कथं पुनरयं तत्त्वज्ञानार्थो न तत्त्वज्ञानमेवेति अनवधारणात् । तत्त्वज्ञानमुत्पद्यत इत्येवं तत्त्वज्ञानार्थ इति । - न्यायभाष्य, १.१.४० १४५. न्यायवार्तिक, १.१.४० १४६. न्यायवार्तिक १.१.४० १४७. यथा - (१) विमृश्यमानयोर्धर्मयोरेकतरं कारणोपपत्त्या अनुजानाति संभवत्यस्मिन् कारणं प्रमाणं हेतुरिति । कारणोपपत्त्या स्यादेवमेतत् नेतरदिति । - न्यायभाष्य, १.१.४० (२) कारणोपपत्तित इति प्रमाणोपपत्तितः । उपपत्तिः संभव । संभवति एतस्मिन्नर्थे प्रमाणमिति भवेदयमर्थ इति । - न्यायवार्तिक, १.१.४० १४८. वाचस्पतिमिश्र की तात्पर्यटीका में 'तर्केण हि प्रसंगापरनाम्ना' के द्वारा यह स्वरूप दिखाई देता है जिसे आगे भी नैयायिकों ने अपनाया है । - न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, १.१.४० १४९. तार्किकरक्षा, मेडिकल हॉल, वाराणसी, पृ. १८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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