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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा '
सम्यग्ज्ञान पूर्वक होती है, इसलिए सम्यग्ज्ञान (प्रमाण) का व्युत्पादन किया जा रहा है ।२१ न्यायावतारसूत्रवार्तिककार शान्तिसूरि नामक जैन दार्शनिक ने प्रमाण को हितार्थ की प्राप्ति एवं अहितार्थ के त्याग का कारण प्रतिपादित किया है ।२२ प्रमाण-शास्त्रों के सर्जन का प्रारम्भ-भारतीय दार्शनिक-चिन्तन में प्रमाण किं वा प्रमाणों का प्रारम्भ कब हुआ यह निश्चित रूप से कहना अशक्य है, किन्तु यह सुनिश्चित है कि प्रमाण का अवलम्बन लिए बिना प्रमेय की मीमांसा नहीं हो सकती। प्रमेय का ज्ञान करना मानव का अनादि स्वभाव है। बी० के० मतिलाल के शब्दों में न्याय एवं प्रमाण-शास्त्र के विमर्श से ही प्रमेयमीमांसा एवं तत्त्वमीमांसा में प्रवेश किया जा सकता है । २३ अतः प्रमाण निर्विवाद रूप से प्रमेयज्ञान के लिए आवश्यक तत्त्व है।
प्रमाण मानुषिक चिन्तन में प्रारम्भ से रचा बसा रह कर भी पृथक् शास्त्र के रूप में भारतीय नैयायिक अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र (१५० ई.) में सर्वप्रथम परिलक्षित होता है । यद्यपि गौतम के न्यायसूत्र के पूर्व कणाद के वैशेषिकसूत्र, कपिल के सांख्यसूत्र, बादरायण के ब्रह्मसूत्र एवं जैमिनि के मीमांसासूत्र की रचना हो चुकी थी। तथापि प्रमाणचर्चा की दृष्टि से गौतम के न्यायसूत्र को अन्य दार्शनिकग्रंथों की अपेक्षा अर्वाचीन होने पर भी प्रथम स्थान दिया जाता है, क्योंकि प्रमाण इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है।
उपनिषद्,कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं चरकसंहिता में भी प्रमाण-शास्त्रीय सन्दर्भ मिलते हैं , किन्तु उनका यह प्रमुख प्रतिपाद्य नहीं है । छान्दोग्य उपनिषद् में नारद ने सनत्कुमार को विद्या की लम्बी सूची गिनायी है, उसमें वाकोवाक्य नामक विद्या का उल्लेख है २४ जो न्यायविद्या की द्योतक है । कौटिलीय अर्थशास्त्र में ३२ प्रकार की तन्त्रयुक्तियों का निरूपण है२५ जो वादविद्या की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने इन तन्त्रयुक्तियों के निर्माण का समय छठी शताब्दी ई.पू.माना है, किन्तु इस विषय में समस्त विद्वान् एकमत नहीं हैं । २६ प्रमाणशास्त्रीय प्रासाद को खड़ा करने में तन्त्रयुक्तियों के महत्त्व का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने हेतुशास्त्र की रचनाओं में तन्त्रयुक्तियों को सर्वाधिक प्राचीन माना है। सुश्रुतसंहिता (उत्तरतन्त्र, अध्याय ६५) में भी लगभग इन्हीं ३२ तन्त्रयुक्तियों का उल्लेख है । चरकसंहिता (सिद्धिस्थान,अध्याय १२.७८) में इनकी संख्या
२१. सम्यग्ज्ञानपूर्विका पुरुषार्थसिद्धिरिति तद् व्युत्पाद्यते.-न्यायबिन्दु,१.१ २२. हिताहितार्थसंप्राप्तित्यागयोर्यनिबन्धनम् ।
तत् प्रमाणं प्रवक्ष्यामि सिद्धसेनार्कसूत्रितम् ।-न्यायावतारसूत्रवार्तिक, श्लोक १. २३. Perception, p.8 २४. छान्दोग्योपनिषद्,७.१.२ २५. कौटिलीय अर्थशास्त्र, अधिकरण,१५, पृ.९३७ २६. A History of Indian Logic , p.24 २७. A History of Indian Logic, p.25
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