SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन - परम्परा १४ .१५ ने 'प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि' का कथन किया । १३ बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग ने एवं प्रज्ञाकरगुप्त' ने भी प्रमाणाधीनो हि प्रमेयाधिगमः' कहकर इसे पुष्ट किया। जैन दार्शनिक उमास्वाति ने 'प्रमाणनयैरधिगमः १६ सूत्र द्वारा प्रमाण एवं नय को अर्थाधिगम का करण प्रतिपादित किया । प्रमाण से प्रमेय का ज्ञान होता है, यह लगभग समस्त भारतीय दर्शनों द्वारा स्वीकृत सिद्धान्त बना, इसलिए न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, जैन, बौद्ध, चार्वाक आदि समस्त दर्शनों में प्रमाणशास्त्रीय ग्रंथों का निर्माण हुआ । नागार्जुन (१५० ई) जयराशिभट्ट (९ वीं शती) और श्रीहर्ष (११ वीं शती) ने भारतीय दर्शन में निषेधात्मक द्वन्द्वन्याय की पद्धति द्वारा समस्त प्रमाण-व्यवस्था का ही उच्छेद करने का प्रयास किया। जिसके फलस्वरूप प्रमाण के द्वारा प्रमेय की सिद्धि मानने का सिद्धान्त भी संदिग्ध हो जाता है । इन दार्शनिकों के अनुसार या तो तत्त्व अभाव रूप है, शून्यरूप है या भाषा और बुद्धि से परे शब्द और तर्क से परे रहस्यमय है । नागार्जुन का कथन है कि प्रमाण स्वतः सिद्ध नहीं हो सकता तथा उसे प्रमाणान्तर से भी सिद्ध नहीं किया जा सकता । 'जयराशि भट्ट कहते हैं कि प्रमेय की स्थिति प्रमाण के अधीन है तथा प्रमाण के अभाव में प्रमेय एवं प्रमाण दोनों का व्यवहार असंभव है। वे एक अद्भुत दार्शनिक हुए जिन्होंने प्रत्यक्ष, अनुमान आदि समस्त प्रमाणों को अपनी रचना 'तत्त्वोपप्लवसिंह' में अनुचित ठहराया है । वेदान्त दार्शनिक श्रीहर्ष भी अपने ग्रंथ 'खण्डनखण्डखाद्य' में इसी प्रकार प्रमेय-प्रमाण की मान्यता का निरसन करते हैं। १७ १८ १९ इस प्रकार नागार्जुन, जयराशि और श्रीहर्ष संशयवादी दार्शनिकों की कोटि में आते हैं जिनका दर्शन शास्त्र में अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि ये सदैव रचनात्मक आशावादी दार्शनिकों के लिए चुनौती का कार्य करते हैं। ३ न्यायदार्शनिक वात्स्यायन ने प्रतिपादित किया है कि प्रमाण से अर्थ का ज्ञान होने पर प्रवृत्ति करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है, इसलिए प्रमाण की संकल्पना सार्थक है । २० बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति सम्यग्ज्ञान को प्रमाण मानते हैं, अतः न्यायबिन्दु के प्रारम्भ में उनका कथन है- 'पुरुषार्थ की सिद्धि १३. सांख्यकारिका, ४ १४. Dignaga, on perception, p. 76 १५. प्रमाणवार्तिक भाष्य, पृ० ३४० १६. तत्त्वार्थसूत्र, १.६ १७. नैव स्वतः प्रसिद्धिर्न परस्परतः परप्रमाणैर्वा । न भवति न च प्रमेयैर्न चाप्यकस्मात् प्रमाणानाम् ॥ - विग्रहव्यावर्तनी, ५१ १८. अथ कथं तानि न सन्ति ? तदुच्यते सल्लक्षणनिबन्धनं मानव्यवस्थानं, माननिबन्धना च मेयस्थितिः, तदभावे तयोः सद् व्यवहारविषयत्वं कथम् ? - तत्त्वोपप्लवसिंह, पृ० १ १९. खण्डनखण्डखाद्य, प्रथमपरिच्छेद, पृ० ७६-४१०. २०. प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिसामर्थ्यात् अर्थवत् प्रमाणम् - न्यायभाष्य, आदि वाक्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy