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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
३४ तक पहुँच गयी है । उत्तरकालीन रचनाओं यथा अष्टांगहृदय एवं अष्टांगसङ्ग्रह में ३६ तन्त्रयुक्तियों का उल्लेख है। कालमेघ ने तन्त्रयुक्तिविचार नामक एक स्वतंत्र कृति की रचना की है।२८ चरकसंहिता में न्यायसूत्र की पारिभाषिक शब्दावली से मेल खाते हुए अनेक प्रमाणशास्त्रीय पदों एवं संदर्भो का प्रयोग हुआ है,जो निश्चित रूप से चरकसंहिता का प्रमाणशास्त्रीय महत्त्व प्रकट करते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं ऐतिह्य के रूप में चरकसंहिता चार प्रमाणों की गणना करती है तथा उसमें भी न्यायसूत्र की भांति प्रतिज्ञा,हेतु, उदाहरण,उपनय एवं निगमन को अनुमान के अवयवों के रूप में निरूपित किया गया है। जल्प,वितण्डा,संशय,प्रयोजन,अर्थापत्ति,छल,निग्रहस्थान आदि का भी चरकसंहिता में प्रयोग हुआ है।
बौद्ध ग्रंथ उपायहृदय एवं जैनागम अनुयोगद्वारसूत्र में भी प्रमाणशास्त्रीय विवरण उपलब्ध होता है। उपायहृदय का रचयिता कौन है, यह अभी निश्चित ज्ञात नहीं है, किन्तु उसे नागार्जुन की रचना समझा जाता है । उपायह्रदय में वाद-धर्मों का निरूपण हुआ है, साथ ही प्रत्यक्ष, अनुमान,उपमान एवं शब्द रूप चतुर्विध प्रमाणों,अनेकविध निग्रहस्थानों तथा जाति का निरूपण मिलता है । उपलब्ध बौद्ध न्याय ग्रंथों में उपायहृदय को प्राचीनतम कहा जा सकता है। जी० टुची की मान्यता है कि अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र का व्यवस्थित रूप उपायहदय एवं चरकसंहिता की रचना के अनन्तर प्रतिष्ठित हुआ।३° जैनागम अनुयोगद्वार सूत्र में भी गौतमीय न्यायदर्शन के प्रत्यक्षादि चार प्रमाणों का उल्लेख है तथा पूर्ववत् , शेषवत् एवं दृष्टसाधर्म्यवत् रूप तीन अनुमान प्रमाणों का विस्तृत वर्णन है । स्थानांग सूत्र में भी चार प्रमाणों का हेतु' शब्द से निरूपण किया गया है । किन्तु इन आगमों का मुख्य प्रतिपाद्य प्रमाण सम्बद्ध वर्णन नहीं रहा ।
इस प्रकार ईसा की द्वितीय शताब्दी तक प्रमाणशास्त्र का व्यवस्थित प्रथम ग्रंथ न्यायसूत्र प्रतीत होता है । गौतम ने षोडश पदार्थों में प्रमाण को प्रथम स्थान प्रदान किया है,क्योंकि वे प्रमाण को प्रमेय की सिद्धि के लिए आवश्यक सोपान मानते हैं।
गौतम के न्यायसूत्र पर संभवतः चौथी शती में वात्स्यायन ने न्यायभाष्य लिखा । वैशेषिक सूत्र पर प्रशस्तपाद ने प्रशस्तपादभाष्य की रचना की,सांख्यसूत्र पर युक्तिदीपिका लिखी गयी एवं जैमिनि सूत्रों पर शाबरभाष्य की रचना हुई । दिइनाग नामक महान् बौद्ध नैयायिक ने प्रमाणशास्त्रीय चिन्तन में काया पलट किया। उन्होंने प्रमाणसमुच्चय जैसे विशुद्ध प्रमाणशास्त्रीय ग्रंथ की रचना की जिसमें पूर्व प्रचलित न्याय,वैशेषिक एवं सांख्य दर्शनों का खण्डन किया। दिइनाग कृत खण्डन का उत्तर देने के लिए उद्योतकर ने न्यायभाष्य पर न्यायवार्तिक का निर्माण किया। उद्योतकर अपने वार्तिक के
२८. तन्त्रयुक्तियों के विशेष ज्ञान हेतु द्रष्टव्य- R.C. Dwivedi, Concept of the Sastra, Indologica ____taurinensia, Vol.8. २९. Pre- Dignaga Texts, Introduction. pp. 17 and 29 ३०. Pre-Dignaga Texts, Introduction,p.XXX.
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