________________
३१२
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
अनुसार शब्द संकेत द्वारा जो अर्थ ग्रहण किया जाता है वह भी स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान के आधार पर ग्रहण किया जाता है । ११४ वे स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान आदि का विषय काल्पनिक नहीं,अपितु परमार्थ मानते हैं । १५ उनका कथन है कि जब पूर्वानुभूत अतीत अर्थ का पुनःप्रत्यक्ष होता है तो पुरुष उसका प्रत्यभिज्ञान करता है। दूर-निकट आदि का प्रतिभास भेद प्रत्यभिज्ञान द्वारा ही होता है ।११६ प्रत्यभिज्ञान को पृथक् प्रमाण के रूप में स्थापित करते हुए अकलङ्कउपमान का अन्तर्भाव प्रत्यभिज्ञान में कर लेते हैं तथा प्रत्यभिज्ञान के अनेक उदाहरण देते हैं ।११७ विद्यानन्द द्वारा स्थापन
विद्यानन्द ने दो प्रकार के प्रत्यभिज्ञान का निरूपण किया है- एकत्व प्रत्यभिज्ञान एवं सादृश्य प्रत्यभिज्ञान । वही यह है' इस प्रकार का ज्ञान एकत्व प्रत्यभिज्ञान तथा वैसा ही यह है' एवंविध ज्ञान सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है ।११८ वे इन दोनों प्रकार के प्रत्यभिज्ञानों को स्मृति एवं प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
प्रत्यभिज्ञान के इन दोनों प्रकारों को प्रमाण नहीं मानने वाले प्रतिपक्षी बौद्ध दार्शनिकों का कथन है कि एकत्व प्रत्यभिज्ञान का जो स्वरूप वही यह है' के रूप में निर्दिष्ट किया गया है उसमें “वही" पद अतीत का ज्ञान कराने से स्मृतिरूप है तथा यह पद वर्तमान का ज्ञान कराने से प्रत्यक्षरूप है। इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान कोई पृथक् प्रमाण नहीं है,अपितु इसमें प्रत्यक्ष एवं स्मृति दो ज्ञान है । सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में भी इसी प्रकार वैसा ही' यह स्मृति का विषय है तथा यह है' यह प्रत्यक्ष का विषय है, इसलिए प्रत्यभिज्ञान को पृथक् प्रमाण मानने की कल्पना व्यर्थ है ।११९ ।
विद्यानन्द ने प्रतिपक्षी का उत्तर देते हुए प्रतिपादित किया है कि स्मरण और प्रत्यक्ष से जन्य तथा अतीत और वर्तमान में अवस्थित एक द्रव्य को विषय करने वाला प्रत्यभिज्ञान सुप्रतीत है । स्मृति के द्वारा 'वह' का ज्ञान होता है तथा प्रत्यक्ष के द्वारा 'यह' का ज्ञान होता है जबकि प्रत्यभिज्ञान इन दोनों के संकलनात्मक रूप एकत्व 'वही यह है' का बोधक होता है। जो मैं बालक था,कुमार हुआ,युवा हुआ,मध्यम हुआ वही मैं अभी वृद्ध हूँ,ऐसी प्रतीति सबको होती है।१२° प्रत्यभिज्ञान को स्वीकार किये बिना पूर्वोत्तर क्षणों में सन्तान की एकता भी सिद्ध नहीं की जा सकती । इसी प्रकार पूर्वापर
११४. तदयं शब्दार्थों स्मृत्या संकलय्य संकेते पुनः शब्दप्रतिपत्तौ तदर्थ प्रत्येति । लघीयस्त्रयवृत्ति, ४५ ११५. स्मृतिप्रत्यभिज्ञानादेरपि परमार्थविषयत्वात् । लघीयस्त्रयवृत्ति, ४५, अकलङ्कमन्यत्रय, पृ. १५.२९ ११६.(१) प्रतिभासभिदैकार्थे दूरासनाक्षबुद्धिवत् ।।-लघीयसय, ४५
(२) इदमल्पं महदूरमासनं प्रांशु नेति वा।।
___ व्यपेक्षातः समक्षेऽथे विकल्पः साधनान्तरम् ॥-लघीयस्त्रय, २१ ११७. सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, पृ. १७९ ११८.द्विविधं हि प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदमित्येकत्वनिबन्धनम्, तादृशमेवेदमिति सादृश्यनिबन्धनञ्च ।-प्रमाणपरीक्षा, पृ. ४२ ११९. प्रमाणपरीक्षा, पृ. ४२ १२०. बालकोऽहं य एवासं स एव च कुमारकः ।
युवको मध्यमो वृद्धोऽधनास्मीति प्रतीतितः ॥-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org