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स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह - विचार
अर्थ पर आरोप किया जाता है, ऐसा आरोप प्रत्यक्ष में नहीं होता । १°
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शान्तरक्षित का मत है कि दो भिन्न ज्ञानों में अभेद के अध्यवसाय से प्रवृत्त होने के कारण प्रत्यभिज्ञान प्रान्त है, प्रत्यक्ष उससे विलक्षण होता है । १०९ प्रत्यक्ष कल्पनापोढ होता है जबकि प्रत्यभिज्ञान साभिलाप होता है । ११० रत्नकीर्ति ने कारण भेद, विषय भेद, एवं स्वभाव भेद के कारण प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष से भिन्न निरूपित किया है। १११ मोक्षाकर गुप्त ने प्रत्यभिज्ञान को निर्विषय होने के कारण भ्रान्त बतलाया है। ११२
इस प्रकार बौद्धदर्शन ने न्याय, मीमांसा आदि दर्शनों की मान्यता का खण्डन कर प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष से भिन्न प्रतिपादित किया है तथा उसे निर्विषय होने के कारण भ्रान्त बतलाया है । बौद्ध दार्शनिक दिनाग जहां अनवस्था के कारण प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण नहीं मानते वहां अन्य बौद्ध दार्शनिकों ने उसके अप्रामाण्य पर अधिक प्रकाश नहीं डाला है।
वस्तुतः प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण मानने पर बौद्धों के क्षणिकवाद की सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिए बौद्ध में यह अप्रमाण है। क्षणिकवाद में प्रत्यभिज्ञान का विषय ही नहीं होता है, क्योंकि प्रत्यक्ष से दृष्ट विषय तो दूसरे क्षण रहता ही नहीं है ।
जैनों द्वारा प्रत्यभिज्ञान प्रमाण का प्रतिष्ठापन
जैन दार्शनिकों ने प्रत्यभिज्ञान को पृथक् प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया है। अकलङ्क, विद्यानन्द एवं प्रभाचन्द्र के द्वारा दिये गये तर्क यहां प्रस्तुत हैं, जिनमें विशेषतः बौद्ध मान्यता का खण्डन किया गया है ।
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अकलङ्क द्वारा प्रत्यभिज्ञान- प्रमाण का स्थापन
भट्ट अकलङ्क ने प्रत्यभिज्ञान को अविसंवादक ज्ञान होने से प्रमाण माना है। वे स्मृति प्रमाण का फल प्रत्यभिज्ञान को तथा प्रत्यभिज्ञान प्रमाण का फल तर्क को निरूपित करते हैं।' ११३
अकलङ्क के
१०८. एतेन यः समक्षेऽ में प्रत्यभिज्ञानकल्पनाम् ॥
स्पष्टावभासां प्रत्यक्षां कल्पयेत् सोऽपि वारितः । केशगोलकदीपादावपि स्पष्टावभासनात् ॥ प्रतीतभेदेऽप्यध्यक्षा धीः कथं तादृशी भवेत् । तस्मान्न प्रत्यभिज्ञानाद् वर्णाद्येकत्वनिश्चयः ॥ पूर्वानुभूतस्मरणात् तद्धर्मारोपणाद् विना ।
स एवायमिति ज्ञानं नास्ति तच्चाक्षजे कुतः ॥ - प्रमाणवार्तिक, २.५०३-५०६
१०९. भ्रान्तं च प्रत्यभिज्ञानं प्रत्यक्षं तद्विलक्षणम् ।
अभेदाध्यवसायेन भिन्नरूपेऽपि वृत्तितः ॥ - तत्त्वसङ्ग्रह, ४४७
११०. न खलु प्रत्यभिज्ञानं प्रत्यक्षमुपपद्यते ।
वस्तुस्वरूपमनिर्देश्यं साभिलापं च तद्यतः ॥ - तत्त्वसङ्ग्रह, ४४६
१११. नन्विदमेक मेव न भवति कारणभेदात् विषयभेदात् स्वभावविरोधाच्च । -रत्नकीर्तिनिबन्धावलि, पृ. ११३ ११२. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण, १०६
११३. अविसंवादस्मृतेः फलस्य हेतुत्वात् प्रमाणं धारणा । स्मृतिः संज्ञायाः प्रत्यवमर्शस्य । संज्ञा चिन्तायाः तर्कस्य ।
- लघीयस्त्रयवृत्ति, अकलङ्कयं धत्रय, पृ. ५.१
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