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________________ ३१० बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा है वह प्रत्यभिज्ञा का ही रूप है। इस प्रकार न्याय,वैशेषिक, मीमांसा, वेदान्त आदि वैदिक-दर्शनों को प्रत्यभिज्ञान का प्रामाण्य मान्य है ,किन्तु ये सब इसे प्रत्यक्ष-प्रमाण में समाविष्ट करते हैं। बौद्धदर्शन में प्रत्यभिज्ञान का अप्रामाण्य बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार स्मृति की भांति प्रत्यभिज्ञान भी प्रमाण नहीं है। क्योंकि प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण मानने पर स्मृति की भांति अनेक दोष आते हैं,यथा (१) प्रत्यभिज्ञान प्रमाण नहीं है,क्योंकि उसे प्रमाण मानने पर अनवस्था दोष आता है ।१०४ (२) वह गृहीतग्राही होता है ।१०५ (३) उसका अपना कोई विषय नहीं है।१०६(४) इसमें स्मृति एवं प्रत्यक्ष दो भिन्न ज्ञान हैं। इसलिए प्रत्यभिज्ञान को भ्रान्तज्ञान माना गया है । (५) निर्विषय होने से संवादकता का इसमें प्रश्न ही नहीं उठता है । दिइनाग कहते हैं कि जो प्रत्यभिज्ञात्मक विशेषदृष्ट ज्ञान है वह प्रमाण नहीं होता है । उनके मत में ज्ञान एवं प्रत्यभिज्ञान में वस्तुतः भेद नहीं है, फिर भी प्रमाण एवं फल का भेद करने पर ज्ञान प्रत्यभिज्ञेयार्थ से भिन्न हो जाता है। प्रत्यभिज्ञान तो गृहीत का ग्रहण करता है । यहाँ पर वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत रूपादि के अनित्य होने का जो ग्रहण है वह भी प्रमाण नहीं होता है । वे प्रत्यभिज्ञान को अप्रमाण मानने के जिस कारण का निर्देश करते हैं वह है अनवस्था दोष । वे कहते हैं कि यदि सभी ज्ञानों को प्रमाण माना जाय तो अनवस्था दोष आता है।०७ धर्मकीर्ति ने प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष मानने वाले दार्शनिकों का खण्डन कर उसे प्रत्यक्ष से भिन्न प्रतिपादित किया है। धर्मकीर्ति का मत है कि 'यह वही है' इस प्रकार की एकत्वविषयक प्रत्यभिज्ञान नामक कल्पना को प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं माना जा सकता,क्योंकि प्रत्यक्ष एवं प्रत्यभिज्ञान का विषय भिन्न है । प्रत्यक्ष में स्पष्ट अवभास होता है, किन्तु प्रत्यभिज्ञान में उसका भ्रम होता है । काटे हुए केशों एवं नवीन उत्पन्न केशों में,जादूगर के द्वारा प्रदर्शित गोलों में,तथा प्रतिक्षण नये जल रहे दीपक आदि में यह वही दीपक है के रूप में जो प्रत्यभिज्ञान होता है, वह स्पष्टावभासी प्रत्यक्ष से भिन्न है, इसलिए प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता । ऐसे प्रत्यभिज्ञान से वर्णादि में एकत्व का निश्चय नहीं हो सकता,क्योंकि प्रत्यक्ष एवं प्रत्यभिज्ञान दोनों भिन्न हैं। प्रत्यभिज्ञान में पूर्वानुभूत अर्थ के धर्म का स्मरण होने से वर्तमान १०४. नाऽपि पुन: प्रत्यभिज्ञाऽनवस्था स्यात्स्मृतादिवत् ।- प्रमाणसमुच्चय, १.३ १०५. गृहीतग्रहणं प्रत्यभिज्ञानम्।-प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, पृ.१० १०६. प्रत्यभिज्ञाप्रत्ययो प्रान्त एव निर्विषयत्वात् । -तर्कभाषा (मोक्षाकरगुप्त), पृ.३२, पङ्क्ति २३ १०७. प्रत्यभिज्ञात्मकं यद्विशेषदृष्टज्ञानं तत्प्रमाणं न भवतीत्यर्थः । यद्यपि ज्ञानप्रत्यभिज्ञानयोर्वस्तुतः भेदो नास्ति । तथापि प्रमाणफलयो भेदकल्पने ज्ञानं प्रत्यभिज्ञेयार्थविजातीयम् । गृहीतग्रहणं प्रत्यभिज्ञानम् । अपिशब्देन प्रत्यक्षेण गृहीतमपि पुनश्च रूपादिकमनित्यमिति यदग्रहणं तदपि प्रमाणं न भवतीति दिश्यते। यदि सर्वेषां ज्ञानानां प्रमाणत्वमिष्यते प्रमाणानवस्था प्रसज्यते स्मृतादिवत्।-प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, पृ.१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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