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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार ३०९ एकता का अवगम नहीं होता,इसलिए वहां सादृश्य प्रत्यभिज्ञा नहीं है। प्रत्यभिज्ञान को शैवदर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द प्रमाणों का मूल माना गया है, परन्तु जैनदर्शन की प्रत्यभिज्ञा स्मृति एवं प्रत्यक्ष पर आधारित है। त्रिकदर्शन में प्रत्यभिज्ञा आत्माभिमुख है तो जैनदर्शन में वह बाह्य अर्थाभिमुख है। न्यायदर्शन में प्रत्यभिज्ञान का समावेश प्रत्यक्ष-प्रमाण में किया गया है । जयन्तभट्ट प्रत्यभिज्ञान को अर्थजन्य होने से प्रमाण मानते हैं तथा प्रत्यभिज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि अतीतकाल से विशिष्ट वर्तमान कालावच्छिन्न अर्थ का अवभासन प्रत्यभिज्ञा में होता है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार सौ फलों की गणना करने में ९९ फल अतिक्रान्त हो जाने पर भी सौ की प्रतीति में हेतु होते हैं उसी प्रकार अतीतकाल का सम्बन्ध भी प्रत्यभिज्ञा में निमित्त बनता है। प्रत्यभिज्ञान प्रमाण तो है ,किन्तु इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्ष है । वैसे यह केवल इन्द्रिय से नहीं, संस्कार सहकृत इन्द्रिय के सामर्थ्य से उत्पन्न होता है।१८ जयन्तभट्ट ने प्रत्यभिज्ञान को मानसज्ञान मानने का भी विकल्प दिया है, किन्तु वाचस्पतिमिश्र ने उसे बहिरिन्द्रिय से जन्य प्रत्यक्ष माना है.२०० वैशेषिक दर्शन में श्रीधर ने प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष माना है तथा उसे संस्कार एवं इन्द्रिय-जन्य स्वीकार किया है । ०१ मीमांसकों ने प्रत्यभिज्ञान को अगृहीमाही प्रतिपादित कर उसे प्रत्यक्ष प्रमाण में सम्मिलित किया है । कुमारिल भट्ट ने प्रत्यभिज्ञान को इन्द्रिय व्यापार के कारण प्रत्यक्ष माना है ।१०२ बौद्धदार्शनिक शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह में मीमांसकों के मत का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार प्रत्यभिज्ञा में स एव अयम्' (यह वही है) में अयम्' (यह) पद स्मृति से अतिरिक्त ज्ञान का बोधक है। अतः प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है ।१०३ सांख्य एवं वेदान्त में भी प्रत्यभिज्ञान का अप्रामाण्य नहीं है। वेदान्त में तो “तत्त्वमसि” महावाक्य में 'सोऽयं देवदत्तः' का उदाहरण देकर जो प्रत्यक्ष घटित किया - ९४. विस्तार के लिए द्रष्टव्य, डा आर सी. द्विवेदी, काश्मीर की तांत्रिक परम्परा : साहित्य, दर्शन और साधना, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली ९५. प्रत्यक्षानुमानागममूलां प्रत्यभिज्ञामाश्रित्य ।-ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी, खण्ड २, पृ. १९५ ९६. न्यायमञ्जरी, भाग-२, पृ. ३१ ९७. न्यायमञ्जरी, भाग-२, पृ.३२ ९८. न्यायमञ्जरी, भाग-२, पृ.३३ २९. मानसी प्रत्यभिज्ञा। न्यायमञ्जरी, भाग २ पृ.३३ १००. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, १.१.४,,पृ. १३९ १०१. द्रष्टव्य, न्यायकन्दली, पृ. २७६-२७७ १०२. प्रमाण प्रत्यभिज्ञानं दृढेन्द्रियतयोच्यते ।-श्लोकवार्तिक, शब्दनित्यत्वाधिकरण, श्लोक ३७२ १०३. ननु च प्रत्यभिज्ञानं स एवेत्युपजायते । अक्षव्यापारसद्भावे निष्पकम्पबाधितम् ॥-तत्त्वसङ्ग्रह, ४४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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