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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
का जैनदार्शनिकों ने इसी सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में समावेश कर लिया है। इन दोनों प्रत्यभिज्ञानों के अतिरिक्त वे वैलक्षण्य (वैसादृश्य) एवं प्रातियौगिक प्रत्यभिज्ञान का भी कथन करते हैं,तृतीय एवं चतुर्थ उदाहरण क्रमश : इन प्रत्यभिज्ञानों का बोध कराते हैं। इस प्रकार दो वस्तुओं में पारस्परिक एकता, सदृशता, विलक्षणता एवं दूर-निकट आदि के व्यवहार का ज्ञान माणिक्यनन्दी के अनुसार प्रत्यभिज्ञान से होता है। __ प्रत्यभिज्ञान के लक्षण का सर्वाधिक विकास वादिदेवसूरि के प्रमाणनयतत्त्वालोक में देखा जाता है। वादिदेवसरि ने अनुभव एवं स्मृति से उत्पन्न तथा तिर्यक् सामान्य व ऊर्ध्वता सामान्य को विषय करने वाले संकलनात्मक ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहा है।९२ इस लक्षण में प्रत्यभिज्ञान के कारण,उसके विषय एवं स्वभाव का निर्देश हो गया है। इसके पूर्व माणिक्यनन्दी के द्वारा निरूपित लक्षण में प्रत्यभिज्ञान के कारण एवं स्वरूप का निर्देश तो हुआ है, किन्तु विषय का निर्देश नहीं था । वादिदेव ने तिर्यक् सामान्य एवं ऊर्ध्वता सामान्य को जो विषय बतलाया है वह एकत्व प्रत्यभिज्ञान एवं सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में लागू होता है । 'आदि' पद से अन्य विषयों का ग्रहण हो जाता है। विभिन्न अर्थों में जो सदृश परिणति होती है वह तिर्यक् सामान्य एवं एक ही पदार्थ की विभिन्न पर्यायों या अवस्थाओं में जो सदृशता होती है उसे जैन दर्शन में ऊर्ध्वता सामान्य कहा गया है।९३ एक ही व्यक्ति में बचपन युवावस्था एवं वृद्धावस्था में जो एकत्व प्रत्यभिज्ञान होता है वह ऊर्ध्वता सामान्य विषय से होता है तथा विभिन्न मनुष्यों में जो सादृश्य का प्रत्यभिज्ञान होता है वह तिर्यक् सामान्य विषय से प्रतीत होता है । हेमचन्द्र सूरि ने प्रमाणमीमांसा में दर्शन (प्रत्यक्ष) एवं स्मरण से उत्पन्न संकलनात्मक ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान निरूपित करते हुए उसे एकत्व,सादृश्य,वैलक्षण्य एवं तत्प्रतियोगी इत्यादि भेद वाला माना है। अन्य दर्शनों में प्रत्यभिज्ञान
प्रत्यभिज्ञा अथवा प्रत्यभिज्ञान शब्द का प्रयोग काश्मीरशैव दर्शन में आत्म-प्रत्यभिज्ञान के लिए हुआ है । आत्मा प्रकाशित होने पर भी बौद्धिक विकल्पों से विच्छिन्न हो जाता है,उसका सर्वतोभावेन अनुसंधान पूर्वक साक्षात् ज्ञान ही शैवदर्शन में प्रत्यभिज्ञा है । सीधे शब्दों में कहें तो ज्ञात आत्मा को भूलकर पुनः पहचान लेना प्रत्यभिज्ञान है । जैनदर्शन में प्रत्यभिज्ञान को जिस प्रकार एकत्व,सादृश्य, आदि अनेक प्रकार का निरूपित किया गया है, शैवदर्शन में वैसा प्रतिपादन नहीं है । शैवदर्शन में एकत्व के आधार पर प्रत्यभिज्ञा स्वीकार की गयी है, सादृश्य के आधार पर नहीं । सादृश्य ज्ञान से
९१.(१) दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम् । तदेवेदं तत्सदृश, तद्विलक्षणं, तत्प्रतियोगीत्यादि ।-परीक्षामुख, ३.५
(२) यथा स एवायं देवदत्त:, गोसदृशो गवय:, गोविलक्षणो महिष इदमस्माद् दूरम, वृक्षोऽयमित्यादि ।-परीक्षामुख,
९२. अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्खतासामान्यादिगोचरं, संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.५ ९३. प्रतिव्यक्ति तुल्या परिणतिस्तिर्यक्सामान्यं । पूर्वापरपरिणामपसाधारणं द्रव्यमूर्ध्वतासामान्यं ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक
५.४
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